फटे जूते…हिंदी के लगभग लगभग हर पाठक ने यह नाम या विषय जरूर सुना है , क्योंकि जूते एक बार प्रेम चंद्र जी के भी फटे थे पर वो ठहरे बड़े साहित्यकार तो उनके जूतों के बारे में बकायदा लिखा गया और लिखा क्या पाठक उसे खुशी से पढ़ते भी हैं ,पर अब की बार यह जूते प्रेमचंद जी के नहीं स्वयं मेरे ही हैं। इतिहास गवाह है जब-जब इन मनहूस पैरों में जूते पड़े दो-तीन महीने में तो फटते ही फटते हैं.. बेचारे जूते! एक बार को तो मेरे मन में यह ख्याल आया कि कहीं मैं प्रेमचंद्र जी की तरह बड़ा साहित्यकार बनने की राह पर तो नहीं, पर हृदय की उदासीनता ने झंडा दिखाया तो खयाल नौ दो ग्यारह हो गया ।जूते भी बड़ी जटिल समस्या है साहब, पैरों के हिसाब से बढ़ते ही नहीं और आम आदमी को सस्ते पढ़ते भी नहीं ।बचपन में हमें सिखाया जाता कि अगर व्यक्ति अनजान हो तो उसके अच्छे या बुरे की पहचान उसके जूते से करो , गर यह प्रथा लोगों में अब भी जिंदा होगी तो, मैं कहीं आने जाने लायक भी नही रहूगा। वैसे अगर बात जूतों की उपयोगिता की हो तो यह फटे हुए जूते भी चुनाव के समय काम आएंगे ,पर क्या नेताजी की चमड़ी पर जूते का पतला काम आएगा? इन जूतों के कारण हालत तो देश की व्यवस्था की भी खराब ही है, जब तक अफसर को आप पैरों के मोटे जूते ना दिखाएं तब तक वह कहां कुछ करते हैं।देखा जाए तो यह जूता हर घर की जरूरत है जब बच्चा फालतू सामान मांगे तो भी जूता ही उपयोगी है , बिल्ली रास्ता काटे तो भी बिना जूते कहां आगे बढ़ना होता है ।महसूस होता है कि तमाम जगह हर व्यवस्था के पीछे कारण जूता ही है ।जूते की उपयोगिता को जानकर उसे हृदय से प्रणाम करता हूं पर अब बहुत जूता जूता हो गया, छोड़िए साहब नए जूते ले ही लेता हूं ,पहनने के भी काम आएंगे और फिर चुनाव भी तो नजदीक ही है।
✍दास आरूही आनंद
2:30 बजे ,29/11/2017
जाकिर हुसैन लाइब्रेरी , जामिया मिलिया इस्लामिया