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बॉलीवुड में समाज को कैसे टूल की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा?

आज के दौर का सिनेमा उस दौर का सिनेमा नहीं है जब फिल्में सिर्फ मनोरंजन और कला के प्रदर्शन के लिए बनती थीं। 91-92 में उदारीकरण के बीज बोते ही उद्योग जगत की फसलें लहरानी शुरू हो गई थीं। धीरे-धीरे कृषि से प्रॉफिट की आस रखने वाला देश, उद्योग जगत से प्रॉफिट की बाट जोहने लगा। इस उद्योग जगत में कारखाना उद्योग ही नहीं बल्कि मनोरंजन जैसा उद्योग भी शामिल था। बरसों बाद मनोरंजन जगत का पूरी तरह औद्योगीकरण हो चुका है। तब फिल्में मनोरंजन करने के लिए बनती थीं अब प्रॉफिट कमाने के लिए। उदारीकरण से पहले फिल्म जगत एक इंडस्ट्री की तरह नहीं बल्कि अभिनय और नृत्य कला के मंझे हुए कलाकारों को पर्दे पर लाने के लिए बनाई जा रही थीं।

तब में और अब में अंतर ये है कि पहले मनोरंजन के लिए स्क्रिप्ट लिखी जाती थी अब पॉपुलर होने के लिए, भले ही चाहे उसमें लाख बुराई हो, चाहे उसमें समाज का हित हो या न हो। पुरानी फिल्में अपनी कलात्मक और कल्पनाशीलता के बल पर हिट हो जाया करती थीं। लेकिन आज कुकरमुत्तों की तरह फिल्में और नाटक बन रहे हैं, कहानी, गीत-संगीत में सुर ताल तो होती है लेकिन गीत के बोल उतने ही भद्दे कि सिर्फ पार्टी में डांस करते हुए ही सुने तो बेहतर है। डायलॉग्स में चिल्लाहट है, अभिनय नाममात्र।

फिल्मों की भीड़ इतनी हो गई है कि उसमें से कौन सी फिल्म देखने के लिए चुनें, इतना मुश्किल जितना अनाज में से सुरसुरी छांटना। ये सब फिल्म जगत के व्यापारीकरण होने के कारण है। 

पद्मावती फिल्म विवाद को ही ले लीजिए। फिल्म के रिलीज होने से पहले ही राजपूत समाज ने ताबड़तोड़ विरोध करना शुरू कर दिया। डायरेक्टर्स को ज़ख्मी तक कर दिया। अब रिलीज़ होने से पहले खुद राजपूत समाज के प्रतिनिधि उसको देखेंगे। तब जाकर फिल्म रिलीज़ होने के लिए तैयार होगी। राजस्थान के राजपूत समाज ने फिल्म का इतना पुरज़ोर विरोध किया कि सरकार को भी दंगे-फसाद की चिंता सताना लाज़मी है। विरोध भी ऐसा कि सुरक्षा एजेंसियों के भी हाथ पांव फूले हुए हैं। विरोध भी किस बात पर, इस बात पर कि पद्मावती की ऐतिहासिक कहानी को तोड़ मरोड़कर दिखाया जा रहा है। राजपूत समाज का मत है कि पद्मावती का इतिहास ऐसा नहीं है तो वहीं फिल्म निर्देशक का कहना है कि फिल्म में इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है।

अब सवाल है कि क्या इतिहास पूर्ण सत्य हो सकता है? अगर नहीं तो ये विरोध ही व्यर्थ है। अगर हां तो राजपूत समाज को इसे सिद्ध करना चाहिए। कई इतिहासकार खुद ये मानते हैं कि इतिहास कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता, उसमें तथ्यों का ऊपर नीचे होना संभव है। इसको इतिहास के उदाहरण से ही समझ सकते हैं, हड़प्पा सभ्यता के अस्तित्व का समय कब का है?

इस सवाल के जवाब में कई इतिहासकारों के मतभेद हैं। सबसे करीब तिथि इतिहासकार रोमिला थापर की मानी गई है। जिन्होंने बताया कि हड़प्पा सभ्यता की समय 2500 से 3000 ई.पूर्व का था। तो वहीं कई इतिहासकार हड़प्पा सभ्यता का समय 2500 ई.पूर्व न मानकर 4000 से 5000 ई. पूर्व का मानते हैं।

वहीं मुगल शासक हुमायु की मृत्यु 1556 को 26 जनवरी के दिन हुई थी। बताया जाता है कि इनकी मृत्यु सीढ़ियों पर उतरते या चढ़ते वक्त गिरने से हुई। लेकिन क्या ये पुख्ता हो पाया कि हुमायु की मृत्यु वाकई सीढ़ियों से गिरकर हुई थी या फिर उन्हें हृदय घात आया था?

जब इतिहासकार ही इतिहास के कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर पुख्ता नहीं हो पाए तो राजपूत समाज या संजय लीला भंसाली कैसे पुख्ता हो सकते हैं।

दरअसल, फिल्म जगत विज्ञापनों से प्रचार नहीं बल्कि विवादों से प्रचार कर रहा है। भागती-हांफती ज़िंदगी की इस दौड़ में किसी के पास भी समय नहीं है कि प्रिंट में किसी फिल्म के बारे में विज्ञापन देखे या फिर टेलीविजन ट्रेलर देखकर फिल्म की रिलीज डेट को सेव करके रखले और एडवांस में टिकिट बुक कराले। अब जितना ज़्यादा ज़रूरी फिल्म को हिट करना हो गया है उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी कोई ऐसा विवाद खड़ा करना जिससे समाज का हर तबका उस पर बात करना शुरू कर दे।

जैसे हाल ही “टाइगर ज़िंदा है”  फिल्म के प्रमोशन में समाज के विशेष वर्ग के लिए जाति सूचक शब्द का इस्तेमाल किया गया है। जिसको लेकर जयपुर में विशेष समाज को लोग उपद्रव मचाने लगे तो वहीं अब ये विवाद पूरे देश में फैल रहा है। देश के हर कोने से प्रतिक्रिया आने लगी। कानून किसी जाति विशेष के लिए जाति सूचक का इस्तेमाल गैर कानूनी माना गया है, यही नहीं इसके लिए सज़ा तक का प्रावधान है। इसके बावजूद फिल्म में ऐसे शब्द का इस्तेमाल होने पर समाज वर्ग के प्रतिनिधि सलमान खान और अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का विरोध कर ही रहे हैं साथ ही सिनेमा घरों में तोड़फोड़, उत्पात से सामाजिक जीवन भी अस्तव्यस्त किया हुआ है।

इससे समाज को नुकसान है तो वहीं बॉलीवुड को कहीं न कहीं फायदा ही पहुंच रहा है। क्योंकि किसी भी फिल्म या नाटक विषय पर विवाद होने से दर्शक फिल्म या नाटक देखने नहीं बल्कि उस फिल्म या नाटक में उस विवाद की चीरफाड़ करने के लिए जाते हैं।

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