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2017 की वो 15 फिल्में जो बदलते कैलेंडर के साथ भी याद रह जाएंगी

2017 में रिलीज़ हुई फिल्मों में से अधिकांश वही फॉर्मुला फिल्में थीं, जो हर साल अलग-अलग मुखौटों में दर्शकों की जेब कतरने आती हैं। हर साल की तरह कुछ बेहद बकवास थीं, तो कुछ सामान्य कोटि की थी। इस तरह की फिल्मों पर चर्चा करने का कोई बहुत मतलब नहीं बनता। लेकिन हर साल की तरह इस साल भी कुछ ऐसी फिल्में आई, जिन्होंने दर्शकों के मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। इनमे कुछ ऐसी भी थी जो अपनी कमज़ोरियों के कारण दर्शकों का मन जीतते-जीतते रह गई। कुछ ऐसी फिल्में भी प्रदर्शित हुई, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर न तो बहुत कमाई की और न ही वह चर्चा बटोर पाई, जिसकी वो वास्तव में हकदार थीं। यहां इस लेख में हम इन श्रेणियों की कुछ फिल्मों पर चर्चा करेंगे। इस चर्चा में फिल्मों का क्रम उनकी प्रदर्शन की तिथि के आधार पर रखा गया है। संभव है कि व्यक्तिगत सीमाओं के कारण कुछ फिल्मों का ज़िक्र छूट गया हो।

हरामखोर (13 जनवरी)

श्लोक शर्मा के निर्देशन में बनी इस फिल्म के लिए जो विषय और पृष्ठभूमि चुनी गई है, उस ओर हिन्दी सिनेमा का ध्यान कम ही गया है। ग्रामीण पृष्ठभूमि की भीतरी परतों में कुंठा और शोषण के सामंती संस्करण ही नहीं और भी कई संस्करण मौजूद होते हैं। एक कुंठित और घटिया मानसिकता के स्कूल टीचर को केन्द्र में रखकर एक अस्वस्थ परिवेश और उसके बेहद नकारात्मक परिणामों को दृश्यों में उतार पाने में यह फिल्म सफल रही है। फिल्म का अभिनय पक्ष भी मजबूत है।

इरादा (17 फरवरी)

कुछ देखने लायक फिल्में कब आती हैं और आकर चली जाती हैं, भनक तक नहीं लग पाती। फिर कभी यूं ही भूले-भटके आपको वो फिल्म दिख जाए और देखने के बाद लगे कि यह तो एक ज़रूरी फिल्म है। ‘इरादा’ एक ऐसी ही फिल्म है। कैमिकल फैक्ट्रियों से निकलने वाले खतरनाक कचरे को रिवर्स बोरिंग के माध्यम से ज़मीन में ही दबा देने के दुष्परिणामों को इस फिल्म के केन्द्र में रखा गया है। इससे आस-पास के इलाके में भूमिगत जल और फसलों के इसके प्रभाव में आने से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी फैलती चली जाती है। फायदे के लिए सत्ता और व्यापारियों के गठजोड़ से कैसे इस तरह के काम धड़ल्ले से होते हैं, यह भी इस फिल्म में दिखाया गया है। फिल्म में नसीरुद्दीन शाह, दिव्या दत्ता, अरशद वारसी और सागरिका घटगे सहित कई मंझे हुए कलाकार हैं। निर्देशक अपर्णा सिंह ने अच्छे इरादे से एक अच्छी फिल्म बनाई है।

ट्रैप्ड (17 मार्च)

विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशित इस फिल्म की तारीफ इसलिए भी हुई कि इसके केन्द्र में मनुष्य की जिजीविषा है। विपरीत परिस्थितियों में भी उससे बाहर आ जाने की उम्मीद बनाए रखना, उसके लिए लगातार प्रयास करते रहने की आवश्यकता को ही इस फिल्म की लगभग पूरी अवधि में जगह दी गई है। फिल्म में केन्द्रीय भूमिका राजकुमार राव ने निभाई है। फिल्म में कुछ कमज़ोर कड़ियां लग सकती हैं, लेकिन फिल्मकार के फोकस के लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए।

पूर्णा (31 मार्च)

बायोग्राफिक फिल्मों का अपना अलग महत्व है, लेकिन यदि ऐसी फिल्में अपना विषय समाज के उपेक्षित हिस्सों से चुनती हैं तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। तेलंगाना की एक किशोर आदिवासी लड़की के सबसे कम उम्र में एवरेस्ट फतह करने के पीछे अभावों और चुनौतियों को मात देने की जो कहानी है, वह प्रेरणादायक है। निर्देशक राहुल बोस की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने ऐसे विषय को चुना और इसके साथ सही बर्ताव किया।

https://www.youtube.com/watch?v=LRoowtgZCeU

मुक्ति भवन (07 अप्रैल)

बतौर निर्देशक शुभाशीष भुटियानी की यह पहली फीचर फिल्म है। महज़ छब्बीस वर्ष के शुभाशीष की निर्देशकीय प्रौढ़ता चकित करती है। बिना किसी हड़बड़ी के और ज़रूरी ठहरावों के साथ चलने वाली इस फिल्म का एक भी दृश्य, एक भी संवाद फालतू नहीं है। मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए ‘काशी प्रवास’ की जो परंपरा रही है, उससे प्रेरित होकर बनाई गई यह फिल्म भावना, विचार और जीवन दर्शन के कई ज़रूरी पहलुओं को छूती है। फिल्म का अभिनय पक्ष भी बहुत प्रभावित करता है।

हिंदी मीडियम (19 मई)

यह फिल्म अपनी कसावट में कहीं-कहीं थोड़ी चूकती हुई ज़रूर लगती है, लेकिन ये चूक बेहद मामूली है। फिल्म के निर्देशक की इस बात के लिए तारीफ ज़रूर होगी कि उन्होंने इसे मनोरंजक बनाए रखने के लिए, लगभग सभी तत्वों का इस्तेमाल करते हुए भी उस पर हिंदी फिल्मों के चालू फॉर्मूलों को हावी नहीं होने दिया है।

इरफान खान, सबा कमर और दीपक डोबरियाल सहित सभी कलाकारों का अभिनय बेहद उम्दा है। लेकिन सिर्फ इस कारण ही नहीं बल्कि इस फिल्म को ज़ीनत लखानी और निर्देशक साकेत चौधरी की लिखी एक अच्छी कहानी और पटकथा पर बनी फिल्म के रूप में भी देखना चाहिए। शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी एक बड़ी समस्या पर यह फिल्म बनाई गई है। इस तरफ हिन्दी फिल्मकारों का ध्यान नहीं के बराबर गया है। देश की आज़ादी के 70 साल बाद भी देश की जो दुर्दशा है, उसके लिए बड़े ज़िम्मेवार ‘तबक़े’ को पहचानने में यह फिल्म बहुत मददगार साबित होती है।

फुल्लू (16 जून)

अक्षय कुमार के स्टारडम और चुने गए विषय को भुनाकर आने वाले नए साल के पहले ही महीने में दर्शकों की जेब खाली करने के लिए जब ‘पैडमैन’ बनकर तैयार है, तब इस वर्ष रिलीज़ हुई इसी तरह के विषय पर बनाई गई फिल्म ‘फुल्लू’ का ज़िक्र करना अधिक ज़रूरी हो जाता है। अभिषेक सक्सेना के निर्देशन में बनी यह फिल्म हर कोण से तारीफ के लायक तो नहीं है, लेकिन सेनेट्री पैड को सुलभ बनाने की एक अनपढ़ ग्रामीण युवक की ज़िद, जुनून और संघर्ष को इस फिल्म ने सही बर्ताव के साथ स्क्रीन पर उतारा है। फिल्म का दृष्टिकोण स्त्रीसंवेदी है। अभिनय पक्ष की भी तारीफ की जा सकती है।

https://www.youtube.com/watch?v=RHcRyC0mg4U

इस फिल्म में एक खास किस्म की नाटकीयता है, जो दर्शकों के एक बड़े तबके को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। यदि ऐसी फिल्मों को सुदूर इलाकों में विशेष उद्देश्य के साथ घूम-घूम कर दिखाया जाए तो सेनेट्री पैड और माहवारी जैसे मुद्दों पर पर्याप्त जागरूकता लाई जा सकती है।

लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा (21 जुलाई)

एक वाक्य में कहा जाए तो ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ स्वाभाविक इच्छाओं, सपनों और आज़ादी के अनावश्यक दमन या इन पर गैरज़रूरी बंदिशों, पाबंदियों के नकारात्मक परिणामों पर केन्द्रित फिल्म है। इसका शीर्षक एक रूपक (Metaphor) है, जो फिल्म की विषय-वस्तु के आधार पर सार्थक है। इस फिल्म को अच्छी कहने के बावजूद, मैं बहुत प्रभावशाली नहीं कहूंगी। फिर भी अर्थपूर्ण सिनेमा की खोज में रहने वाले दर्शकों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म एक ज़रूरी संदेश देती है, लेकिन इसे ग्रहण करने के लिए इस लायक संवेदनशीलता की ज़रूरत पड़ेगी। फिल्म का अभिनय पक्ष प्रशंसनीय है।

इंदु सरकार (28 जुलाई)

मेरे खयाल से इमरजेंसी के हालात को केन्द्र में रखकर बनाई गई किसी भी फिल्म को देखकर इमरजेंसी के बाद जन्मी या होश संभालने वाली पीढ़ी को यह एहसास नहीं होगा कि वे खाली हाथ उठे हैं। ‘इंदु सरकार’ भी इमरजेंसी के दौर की संवेदनहीन सत्तासंस्कृति से परिचय कराती है। इस फिल्म का अभिनय पक्ष भी प्रभावशाली है, लेकिन इस फिल्म में भारी अधूरापन और राजनीतिक लोचा है। इसे समझने के लिए आपको इस फिल्म को देखने के अलावा इमरजेंसी के दौर के हालात और उस दौर के जन आंदोलनों के बारे में मुक्कमल जानकारी की दरकार होगी।

https://www.youtube.com/watch?v=qh-_gR6a5JE

संकेत में फिलहाल इतना ही कि यह फिल्म वर्तमान में केन्द्र में सत्तासीन राजनीतिक दल को, पक्षपातपूर्ण तरीके से जनपक्षधर और क्रांतिकारी विरासत पर खड़ा करने में अपनी भारी ऊर्जा लगा देती है। यह मान लेना दु:खद तो है, लेकिन यही सच है कि मधुर भंडारकर अब निष्ठावान फिल्मकार नहीं रहे।

रागदेश (28 जुलाई)

तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन की अपनी एक साख है। इस फिल्म के लिए उन्होंने आई.एन.ए के सैन्य अधिकारियों से जुड़े जिस विषय का चयन किया है, वह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की एक कम ज्ञात लेकिन महत्वपूर्ण घटना है। हिन्दी सिनेमा, ऐतिहासिक विषय वस्तु के साथ बुरा बर्ताव करने के लिए कुख्यात है, लेकिन इस फिल्म के लिए की गई रिसर्च और उसके सही उपयोग के लिए इसकी तारीफ हुई है। हमारे इतिहास के कई प्रसंगों पर पूर्वाग्रहमुक्त और प्रामाणिक फिल्में बनाए जाने की बहुत आवश्यकता है।

https://www.youtube.com/watch?v=VC2YlQNHpYs

न्यूटन (22 अगस्त)

उस दौर में जब व्यवस्थाजनित विकट परिस्थितियों का हमें लगातार सामना करना पड़ रहा है, हम ‘न्यूटन’ जैसी फिल्मों से ऊर्जा हासिल कर सकते हैं। अमित मसुरकर निर्देशित यह फिल्म स्पष्ट रूप से यह संदेश देती है कि ईमानदारी अहंकार का विषय नहीं है, बल्कि इसे तो मनुष्य का सहज स्वाभाविक गुण होना ही चाहिए। इसी तरह यह भी कि बिना बदले कुछ भी नहीं बदलता! फिल्म के दृश्य, कथा और संवाद इस बात की तस्दीक करते हैं कि यह फिल्म कितने अधिक सकारात्मक और संवेदनशील दृष्टिकोण के साथ बनाई गई है।

करीब करीब सिंगल (10 नवम्बर)

बेहद खूबसूरत पटकथा पर बेहद खूबसूरती के साथ फिल्माई गई तनुजा चंद्रा निर्देशित इस फिल्म को देखकर जब आप उठेंगे तो निश्चित रूप से आप सकारात्मक महसूस करेंगे। इस फिल्म में प्यार की तलाश करते किरदार दिखते हैं, प्यार और दृष्टिकोण की जटिलताएं और विविधताएं दिखती हैं और जीवन को खूबसूरती से जीने की ललक भी दिखाई देती है। इरफान खान और पार्वती ने बहुत सहज अभिनय किया है। व्यक्तियों के स्वभाव, मनोभावों, परिस्थितियों आदि का इस फिल्म में बड़ी सूक्ष्मता के साथ फिल्मांकन हुआ है।

तुम्हारी सुलु (17 नवम्बर)

इस फिल्म में महानगर के निम्न मध्यवर्गीय जीवन की बाधाओं, आकांक्षाओं, सीमाओं और संभावनाओं को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। फिल्म की बड़ी खासियत है कि इसके केन्द्र में एक स्त्री पात्र है। इस फिल्म में विद्या बालन और मानव कौल सहित सभी कलाकारों ने बहुत सहज अभिनय किया है। यह फिल्म उन निम्न मध्यवर्गीय संस्कारों से उबरने को प्रेरित करती है, जो प्रगति विरोधी हैं। सुंदर पटकथा और बेहतर निर्देशन के लिए सुरेश त्रिवेणी तारीफ के हकदार हैं।

पंचलैट (17 नवम्बर)

हिदी सिनेमा में हिन्दी साहित्यकारों की कृतियों पर फिल्में बनाने की परंपरा बहुत कमज़ोर रही है। यदि फिल्में बनती भी हैं तो अक्सर मूल कथा के साथ सही बर्ताव नहीं किए जाने की बात सामने आती है। दशकों पहले शैलेन्द्र ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ के साथ, व्यावसायिकता के दबाव को परे रख सही बर्ताव करते हुए फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई थी। फिल्म तो बहुत उम्दा बनी, लेकिन आर्थिक घाटे ने शैलेन्द्र को तोड़ कर रख दिया था।

इस साल निर्देशक प्रेम प्रकाश मोदी ने जब रेणु की ही एक कहानी ‘पंचलाइट’ को आधार बनाकर फिल्म बनाई तो उस ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। मूल कथा नाटकीयता के साथ यह फिल्म बहुत हल्के-फुल्के अंदाज़ में सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी की बात को उठाती है और सहज लोगों की दुनिया से परिचय कराती है। एक छोटी सी कहानी को लगभग सवा दो घंटे का विस्तार देते हुए भी फिल्म में मूल कथा और उसकी संवेदना का लोप नहीं हुआ है। मंझे हुए कलाकारों के अभिनय से जो हमारी उम्मीदें होती हैं, यह फिल्म उसे भी पूरा करती है।

कड़वी हवा (24 नवम्बर)

नील माधव पांडा की फिल्मों में पर्यावरण की चिंता कहीं न कहीं ज़रूर मौजूद रहती है। ‘कड़वी हवा’ में पर्यावरण के बदलते स्वरूप के दुष्प्रभावों को दिखाया गया है। लेकिन इसके अलावा इसके और भी कई आयाम हैं। मसलन कृषि संकट और कर्ज़ में डूबे किसानों की समस्या दिखाई गयी है, सरकार की उदासीनता और भारी असंवेदनशीलता दिखाई गई है। गरीबी और लाचारी दिखाई गई है।

फिल्म दो घंटे से भी कम समय की है। धीमी गति से चलती है और कहीं-कहीं थोड़ी बोझिल भी हो जाती है। जिस मोड़ पर आकर यह लगने लगता है कि असली कहानी अब शुरू होगी, ऐसे मोड़ पर आकर यह खत्म हो जाती है। यह फिल्म आपको समझाने के बजाय आपकी समझ पर अधिक यकीन करती है। सहजता से चलने वाली यह फिल्म भी एक जटिल कविता की तरह खत्म हो जाती है, जिसके अनेक अर्थ आपको तलाशने होते हैं।

फिल्म की चिंता ईमानदार है। केन्द्रीय भूमिका निभा रहे संजय मिश्रा और रणवीर शौरी का अभिनय पसंद करने लायक है। फिल्म को और भी अधिक लोगों से जोड़ने वाली और प्रभावी बनाया जा सकता था, लेकिन यह जैसी भी बनी है सराहने लायक है। फिल्मकार व्यावसायिक फायदे के लिए अपने उद्देश्यों से समझौते नहीं करे, बेईमानी न करे, हमारे समय में दर्शकों के लिए इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा?

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