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2002 गुजरात दंगे : जान के साथ और भी बहुत कुछ खोया मुस्लिम समुदाय ने

अक्सर जब दंगो का ज़िक्र आता है तो खून-खराबा और भीड़ द्वारा इंसानी कत्ल किया जाना ही ज़हन में उभरकर आता है, इससे आगे अमूमन हमारी सोच कुछ और स्वीकार करने में असमर्थ रहती है। अगर दंगो का अध्ययन करें, फिर चाहे भारत हो या विश्व की कोई और जगह, हर जगह ताकतवर पक्ष, कमज़ोर पक्ष को जान का नुकसान पहुंचाने तक ही सीमित नहीं रहता। इससे आगे समाजिक, वैचारिक ओर सबसे ज़्यादा आर्थिक बदहाली के ज़रिये कमज़ोर पक्ष को और कमज़ोर बनाया जाता है। 2002 के गुजरात दंगों में भी स्थिति इससे कुछ अलग नहीं थी।

2002 के दंगों में शुरू के तीन दिनों में सबसे ज़्यादा मौतें हुई थी गुजरात का मुस्लिम समुदाय 27 फरवरी 2002 के दिन गोधरा में जलाई गई साबरमती एक्सप्रेस की घटना को समझ पाता, उससे पहले ही विश्व हिंदु परिषद ने 28 फरवरी 2002 के दिन, गुजरात बंद का ऐलान कर दिया इसी दिन रास्ते रोक दिये गए, दुकाने जबरन बंद करवाई गई इसके बाद 28 फरवरी 2002 को हुआ नरोडा पाटिया नरसंहार और गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार जिसमें मुस्लिम नेता एहसान जाफ़री की भी हत्या कर दी गयी थी, यही दोनों खबरें उस समय छाई रही

दंगों के बाद अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसाइटी; फोटो आभार: getty images

तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन दोनों घटनाओं की निंदा की लेकिन गुलबर्ग सोसाइटी के संदर्भ में ये तथ्य दिया गया कि ये घटना एक्शन का रिएक्शन थी और कहा गया कि एहसान जाफरी ने उग्र हो रही भीड़ पर फायरिंग की थी लेकिन सवाल कई थे कि इस इलाके में पुलिस बन्दोबस्त कितना था, अगर था तो क्या वह भीड़ को रोक पाने के लिये सक्षम था? वहीं अगर एहसान जाफरी ने फायरिंग की भी थी तो इस गोलीबारी में कितने लोग मारे गए या घायल हुए? क्या फायरिंग हुई भी थी? अगर हां, तो क्या यह खुद की सुरक्षा के लिए उठाया गया कदम था?

इन दोनों घटनाओं के आलावा कई ऐसे लोग थे जो बीच रास्ते में सफर में थे, जिन पर थोड़ा भी शक होता उन्हे भीड़ अपना पहचान पत्र दिखाने के लिये बाध्य करती यही कारण था कि हमारे घर में मेरे छोटे भाई को जिसने केश कटवा रखे हैं, तब एक छोटी सिख पगड़ी पहनने के निर्देश दिये गए थे इस समय लोग दाड़ी रखने से कतराने लगे थे, बीच रास्ते में पहचान के आधार पर मार-पीट की कई घटनाएं हो रही थी लेकिन इनके बारे में ज़्यादा लिखा नहीं गया

इसी तरह एक कार शोरूम को आग लगा दी गयी थी, खबर थी कि यह शोरूम हिंदू और मुस्लिम मालिकों के बीच पार्टनरशिप में था सैकड़ों के हिसाब से मुस्लिम प्रॉपर्टी ओर व्यवसाइक ठिकानों को निशाना बनाया गया दुकान, होटल, कारखाने, टेक्सटाइल इत्यादि हर जगह पहले लूटपाट होती और फिर आग लगा दी जाती कई जगह ऐसा सुनने में भी आया था कि कपड़ों के बड़े-बड़े शोरूम लूटने के लिए लोग अपनी कारों में भी आए थे

हम जब कालूपुर या पुराने शहर अहमदाबाद जाते थे तो नदी पर पुल जिसे सुभाष ब्रिज कहा जाता है इसे पार करके शाहीबाग अंडर ब्रिज के मोड़ पर सड़क के बीचोंबीच एक मुस्लिम कब्र थी जिसकी अक्सर धार्मिक रीति रिवाज के तहत देखभाल की जाती थी हम सभी इसे देखते हुए ही बड़े हुए थे शहर में पहले भी दंगे हुए थे लेकिन इस बार दंगाइयों ने, इस स्थान को भी जड़ से उखाड़ दिया कुछ ही दिनों में सड़क निर्माण हो गया, सरकारी महकमे की इस चुस्ती फुर्ती को क्या कहा जा सकता है? अब यहां 15 साल के बाद इसका नामोनिशान भी नहीं है। शाहीबाग अंडर ब्रिज के ही दूसरी तरफ रेल लाइन के साथ ही एक बड़ा शानदार होटल था, जिसका मालिक भी एक मुसलमान परिवार ही था इसे भी पहले लूटा गया और बाद में जला दिया गया

शहर के उन सभी व्यापारिक प्रतिष्ठानों को जिसका ताल्लुक किसी मुसलमान से था, उसे यकीनन क्षतिग्रस्त किया गया कुछ समय बाद इन्हें बेहद कम दाम पर बहुसंख्यक समाज के अमीर और समाज पर दबदबा रखने वाले घरानों ने खरीद लिया था इन दंगों में सैकड़ों की जाने गई, हज़ारो लोगों के व्यवसाय को नुकसान पहुंचाया गया और कई सौ धार्मिक स्थल क्षतिग्रस्त किए गए

अगर गोधरा कांड का रिएक्शन बस मुस्लिम समाज की जान तक ही सीमित रहता तो समझा जा सकता था कि यह भावनाओं और क्रोध की आग से जलता हुआ सांप्रदायिक दंगा था लेकिन यहां वास्तव में इन दंगो में जिस तरह मुस्लिम समुदाय को धार्मिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर करने की कोशिश की गई, उससे प्रतीत होता है कि यह आगजनी, तोड़फोड़ और इंसानी हमले, दरअसल एक सोची समझी साजिश थी

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