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संभल कर, कहीं इयर एंड वाली लिस्ट में जंतर-मंतर वाले किसान की तस्वीर ना लग जाए

‘रहिमन निज मन की बिथा मन ही राखो गोय’ रहीम की यह उक्ति भारतीय मनुष्य का आदर्श है। हमारे गांव-घर के पुरनिया (बुज़ुर्ग) कहा करते थे, “कम खाओ गम खाओ।” हमारे पुरनिया किसान थे- फटे बिवाई वाले पैर, ओंस और पानी में भी नंगे पांव गेहूं सींचते हुए, ठंड में भी फटी बनियान और लुंगी का फेंटा बांधे हाथ में फावड़ा लिए खेतों में पानी डालने वाले किसान।

हम में से तमाम लोगों के पुरनिया कमोबेश ऐसे ही थे। हम गांव से दूर रोज़ी-रोटी की जुगत या उच्च शिक्षा की चाह में भटकते युवा या घर बसा चुके गृहस्थ अपनी एकाध पीढ़ी पीछे मुड़ कर देखें तो बात बहुत पुरानी नहीं लगती है। पर शायद हमारी भूख और ज़ुबान दोनों बढ़ गई है, हम भरपेट खाने की उम्मीद में हैं या खाने लगे हैं। लेकिन अब भी हमारे गांवों में हमारे पुरनियों जैसे बहुत हैं, जिनके पास दाना तो है पर भर-पेट नहीं, ज़ुबान तो है पर आवाज़ नहीं। ये चुप्प और आधे पेट खाए हुए लोग ही हमारी इस विशाल जनसंख्या के अन्नदाता हैं।

यह सब क्यों कहा जा रहा है? शायद इसलिए कि इस बीतते हुए इस वर्ष का सबसे भयावह सच है जंतर-मंतर पर चूहे खाते हुए अन्नदाता, विदर्भ के खेतों में पेड़ों से लटके हुए अन्नदाता, मध्यप्रदेश की सड़कों पर खून की होली खेलते हुए अन्नदाता और महाराष्ट्र की सड़कों पर आंदोलन करते और लाठियां खाते अन्नदाता।

आज जब साल बीतने को है तो हम इन्हें भूल से गए हैं। अखबारों की सुर्खियों में सालाना उपलब्धियां दोहराई जा रही हैं, हमारी स्मृति में कुछ सुखद यादें सुरक्षित की जा रही हैं। सोशल मीडिया कहीं साल भर की यादों का वीडियो बना रहा है तो कहीं हमारी तस्वीरों और पोस्ट का और हम उसे शेयर कर रहे हैं। लेकिन इस छपास, इस शेयर, इस बिदाई और स्वागत के हो-हल्ले में वह कहां है जिसने अभी बस बोलना सीखा है और कम खाते-खाते वो चूहे खाने की हद तक उतर आया है?

सालाना उपलब्धियों में उसकी आवाज़ और उसकी भूख का कोई नाम नहीं, जबकि उसने पहली बार अपनी भूख बताई है वह भी अपनी आवाज़ में। मेरी समझ से पीढ़ियों से चुप रह जाने वाले किसान का बोलना इस साल की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस साल की उपलब्धियां हैं- 1600-1700 रुपए महीना पेंशन वाली महिला से 2000 का न्यूनतम बैलेंस मेंटेन कराने वाली बैंकिंग व्यवस्था, जनधन खातों के सुखाड़ में पैसा सेट करने वाली हरियाली जो कमीशन आधारित सिंचाई से पनपी थी।

इस साल की शुरुआत नोटबंदी की आपाधापी में हुई और साल का मध्याह्न जीएसटी की आपाधापी में बीता। इन आपाधापियों में पिसने वाले छोटे व्यापारी और छोटे उद्योगों के दिहाड़ी मज़दूर क्या इस साल की उपलब्धि नहीं है? क्या उपलब्धि नहीं है कम बोलने और खाने वाले पुरनियों के बच्चों का शहरों से खाली पेट लौट आना? क्या उपलब्धि नहीं है भरपेट खाने की हसरत का मर जाना? क्या उपलब्धि नहीं है कतार में खड़े होने वाले का मर जाना?

खबर है कि केवल संसद में जुमलों का उछाला जाना, किसी की संपत्ति का करोड़ों में उछल जाना या फिर चुपचाप बिना हड़बड़ी के साल का गुज़र जाना ही उपलब्धियां हैं।

अब यह साल गुज़र रहा है, अपने मन की व्यथा के साथ, आधे पेट खाए हुए किसानों के साथ, बेरोज़गार हुए हाथों के साथ। जी हां यह साल गुज़र रहा है उम्मीदों के मरने के साथ।

फोटो आभार: ट्विटर

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