रितुपर्णो घोष की फिल्में देखने के लिए आपको बंगाली आना ज़रूरी नहीं है। उनकी फिल्मों के दृश्य, पात्र और विषयवस्तु खुद ही आपसे आपकी भाषा में संवाद स्थापित कर लेते हैं। शर्त सिर्फ इतनी होती है कि सिनेमा विधा में आपकी रुचि होनी चाहिए। यकीन मानिए रितुपर्णो की फिल्में आपको बहुत समृद्ध करेंगी।
उनकी फिल्में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं, बिना किसी जल्दबाज़ी के। मेरे खयाल से यह उन्हें विषयवस्तु के साथ सही और संवेदनशील बर्ताव का अवकाश देती हैं। मानवीय गरिमा व सम्मान और प्रेम व जीवन की उत्कट लालसा रितुपर्णों के सिनेमाई दृष्टिकोण के केन्द्र में रहते हैं।
उनकी कई बेहतरीन फिल्मों में से एक है ‘अरेक्ति प्रेमेर गोल्पो’-(2010) (एक और प्रेमकथा)। वास्तविक जीवन में बंगाली रंगमंच के एक वरिष्ठ कलाकार चपल भादुरी को केन्द्र में रखकर यह फिल्म बनाई गई है। चपल, बंगाली रंगमंच की उस परंपरा के अंतिम जीवित कलाकार माने जाते हैं जिसमें पुरुष, स्त्रियों की भूमिका निभाते हैं। बंगाली लोकनाट्य और लोकनृत्य में चपल ऐसी भूमिकाएं निभाते रहे हैं।
चपल भादुरी के इस सराहनीय कला कौशल के बावजूद चुनौतियां तब बढ़ने लगी जब उनके समलैंगिक रुझान की बात सार्वजनिक होने लगी। इसके बाद उन्हें रंगमंच पर काम मिलना बहुत कम हो गया और उन्हें कुछ भूमिकाओं तक सीमित हो जाना पड़ा। चपल भादुरी के जीवन से एक पुरूष के दैहिक प्रेम और छल की कहानी भी जुड़ी हुई है। एक समलैंगिक व्यक्ति के लिए समाज में प्रेम, सम्मान और गरिमा हसिल करना कितना अधिक चुनौतिपूर्ण है, चपल भादुरी का जीवन इसका उदाहरण है।
इस फिल्म में चपल भादुरी पर फिल्म बना रहे निर्देशक को समलैंगिक दिखाया गया है। समानांतर चलती कहानी में समलैंगिक निर्देशक के जीवन में भी गरिमा और प्रेम का यही संकट दिखाया गया है, जबकि चपल भादुरी और उस निर्देशक के बीच कम से कम एक पीढ़ी का अंतर तो है ही। यानी फिल्म यह दिखा पाने मे कामयाब रही है कि समलैंगिक समुदाय को लेकर आज भी मानसिकता और परिस्थितियों में बहुत अंतर नहीं आया है। इस फिल्म में ऐसी कई अन्य घटनाओं का संयोजन हुआ है जो यही अभिव्यक्त करती हैं।
‘अरेक्ति प्रेमेर गोल्पो’ में चपल भादुरी की भूमिका खुद चपल भादुरी को दी गयी है। इसी तरह फिल्म के भीतर बन रही फिल्म के निर्देशक की भूमिका ख़ुद रितुपर्णो घोष ने निभाई है। चपल के युवा दिनों की भूमिका भी रितुपर्णों ने ही निभाई है।
यह फिल्म एक अद्भुत प्रयोग है। दरअसल रितुपर्णो घोष का जो सिनेमा संसार है वह ऐसे उद्देश्यपूर्ण रचनात्मक प्रयोगों की प्रयोगशाला भी रहा है।