बचपन में मैं टीवी बहुत देखता था, इतना की मुझे दूरदर्शन पर आने वाले लगभग सभी प्रोग्राम, उनका शेड्यूल और विज्ञापन याद थे। अब मैं इंटरनेट पर वीडियोज़ देखता हूँ। टीवी संचार का बेहद सशक्त माध्यम रहा है, लेकिन आज उसे इन्टरनेट से कड़ी चुनौती मिल रही है। दूरदर्शन पर आने वाले विज्ञापनों की टैगलाइन्स- “आप तो हमेशा ये महंगी वाली टिकिया… (निरमा सुपर)”, “पूरब से सूर्य उगा… (राष्ट्रीय साक्षरता मिशन)” से लेकर “मर्जी है आपकी! आखिर सर है आपका! (हेलमेट एड)” तक मुझे मुंह ज़बानी याद थे।
लगभग उसी समय शबाना आज़मी का HIV-AIDS जागरूकता पर एक एड आता था, “छूने से प्यार फैलता है, एड्स नहीं।” इसमें शबाना जी बताती थी कि एड्स छूने, साथ खाना खाने, कपड़ों के इस्तेमाल करने या चूमने से नहीं फैलता। एड्स के फैलने का कारण संक्रमित सुईं, संक्रमित रक्त आधान (HIV infected blood transfusion) या असुरक्षित संभोग (unsafe sex) होता है। ये लगभग 1994-95 के आस-पास की बात है, तब मैं 7-8 साल का था और संभोग को ‘संभव’ सुनता-समझता था, पर बाकी सारी बातें मेरे दिमाग में तबसे ठीक-2 धंसी हैं।
इन विज्ञापनों का मेरे ऊपर प्रभाव ये हुआ कि ठेठ देहात में जहां डॉक्टर कांच वाली सुईं का इस्तेमाल करते थे, मैं उनसे पूछ लिया करता था कि क्या ये 20 मिनट तक खौलते पानी में रखी गयी हैं? या मुझसे पहले किसी को लगाई तो नहीं गई हैं? संतुष्ट न होने पर मैं डिस्पोज़ेबल सिरिंज की जिद करने लगता था।
एक अन्य विज्ञापन में ‘आयोडीन’ को गर्भवती महिलाओं के लिए और घेंघा रोग की रोकथाम के लिए ज़रूरी बताया गया था, इस विज्ञापन को देखने के बाद मैं जिद करके घर पर आयोडीन नमक मंगाने लगा। ऐश्वर्य राय उसी बीच मिस वर्ल्ड बनी थीं तो उनका भी आईबैंक (eyebank) वाला विज्ञापन भी खूब आता था- “ब्यूटी कॉन्टेस्ट में आपसे तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं, जैसे जाने से पहले इस दुनिया को आप क्या देकर जाएंगी? मैं अपनी आंखे आईबैंक को देकर जाउंगी।” इस विज्ञापन ने मुझे नेत्रदान के प्रति जागरूक किया।
अगर आप समझते हैं कि विज़ुअल मीडिया या जागरूकता के विज्ञापन आपके बच्चे को प्रभावित या जागरुक नहीं कर रहे हैं, वो भी तब जब आज की पीढ़ी के बच्चे ज़्यादा सजग हैं, तो आप वास्तविकता को नज़रंदाज़ कर रहे हैं। दरअसल फैक्ट भी यही है कि बच्चों की तुलना में वयस्क चीज़ों को ज़्यादा नज़रंदाज़ करते हैं।
बचपन में मेरी एक और आदत थी, मैं हमेशा बोर्ड्स और होर्डिंग्स पढ़ता रहता था। अक्सर अस्पतालों के दीवारों पर बने विज्ञापन, जैसे, “हम दो हमारे दो।” ऐसे स्लोगन्स जो वयस्कों के लिए ही थे, इसके बावजूद आज हम 121 करोड़ हैं। लेकिन आज का समय अलग है, आज कल ज़्यादातर बच्चों की पहुंच स्मार्टफोन और इंटरनेट तक है। भारी मात्रा में सेक्शुअल कंटेंट इन्टरनेट पर उपलब्ध है और सबसे ज्यादा सर्च किया जाता है (उनके द्वारा भी जिन्हें आप बच्चा बता रहे हैं और कंडोम का एड देखने से रोकना चाहते हैं, क्योंकि दुधमुंहों के लिए तो ये बैन लगाया नहीं जा रहा होगा।) तो क्या इन पर भी बैन लगाना इतना आसान है?
भारतीय अभिभावक ये कभी नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चे अपनी मर्ज़ी और पसंद से सेक्शुअल एक्टिविटीज़ में शामिल हों, तो क्या उनके लिए यौन संक्रमित बीमारियों (STDs), HIV-AIDS, गर्भधारण और इनसे बचने के तरीकों के बारे में अपने बच्चों से बात करना आसान होगा? बावजूद इस तथ्य के कि तमाम ‘प्रतिबंधों’ के होते हुए भी लोग सेक्स (शायद अनसेफ सेक्स भी) करते ही हैं।
बच्चों के पास सेक्स के बारे में जो भी जानकारी पहुंचती है वो पॉर्न या दोस्तों के माध्यम से पहुंचती है, क्योंकि सेक्स एजुकेशन का तो पहले से ही मज़ाक बना हुआ है। पॉर्न में भी बहुत कम ही सेफ सेक्स यानि कंडोम का इस्तेमाल दिखता है और दोस्त, माँ-बाप तो होते नहीं। ऐसी स्थिति में कंडोम जैसी जान बचाने वाली चीज़ के प्रचार पर बैन का क्या औचित्य हो सकता है?
अगर आप बच्चों तक सही माध्यम से सही जानकारी नहीं पहुंचाएंगे तो वो गलत माध्यमों से गलत जानकारी पाएंगे। ज़रूरत है इन सब चीजों को सामान्य बनाने की, लोगों को और जागरूक करने की, न कि जो हो रहा है उसे भी रोकने की।
सेक्स जैसी प्राकृतिक इच्छा को बांधने की प्रतिक्रिया जिस रूप में फूटती है उसे आप बलात्कार और हत्या जैसे रूप में समाज में देखने को अभिशप्त हैं।
सोडा और म्यूज़िक सीडी के नाम पर TV पर शराब के छद्म विज्ञापन चलाए जा सकते हैं, लेकिन कंडोम के नहीं! इससे सरकार की सेक्स के प्रति रूढ़िवादी और पिछड़ी मानसिकता साफ़ ज़ाहिर होती है जो कंडोम, सेक्स, पीरियड्स और प्रेगनेंसी जैसे शब्दों को आम विमर्श का हिस्सा नहीं बनने देना चाहती और टोकरी के नीचे ढके रखना चाहती है। ऐसे तो समाज में रोगियों की ही संख्या बढ़ेगी।
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