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नए म्यूज़ियम की चमक के पीछे ऐतिहासिक पटना म्यूज़ियम को उजाड़ना सही नहीं

जब देश में अशांति और उत्तेजना का दौर चल रहा हो तो संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरों पर कोई भी चर्चा किसी कोने से शायद ही सुनने को मिलती है। हमारे जैसे आधे-अधूरे शिक्षित समाज में संस्कृति के मसले को आम तौर पर रोज़मर्रे की हलचलों या जन-जीवन की बुनियादी चिंताओं से परे माना जाता है। समझा जाता है कि यह शुद्ध रूप से मुट्ठी भर बौद्धिक-जगत या अकादमिक परिसरों के भीतर चलने वाले शास्त्रीय विमर्श का कोई विषय है।

आम लोगों के बीच संस्कृति के बारे में यह अवधारणा बनाने के पीछे देखा जाय तो बुर्जुआ सरकार और उसके नौकरशाहों की सोची-समझी साजिश ही काम करती है। लोगों को इस रूप में जागरूक होने ही न दो कि किसी भी समाज की मेहनतकश जनता के हाथों पीढ़ी दर पीढ़ी सृजित होने वाली हर वह वस्तु संस्कृति के दायरे में आती हैं जो हमारी चेतना में आनंद और सौंदर्यपरक मूल्य का निर्माण करती हैं। जब इस संपदा पर स्वामित्व की बात आयेगी तो स्वभावतः इस पर अर्थात् पूरी संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरों पर पहली दावेदारी देश की जनता की आयद होगी। मगर यह जागरूकता या चेतना किसी भी शोषणकारी सत्ता और उसके परजीवी नौकरशाहों के लिए भारी खतरे का कारण बन सकती है।

अब नज़र डालें ज़रा बिहार के परिदृश्य पर। बिहार इसका क्लासिकल उदाहरण बना है। पटना म्यूज़ियम बिहार राज्य के लिए ही नहीं, वरन पूरे देश के लिए भी एक गौरव-गान की तरह है जो अपने अस्तित्व के लंबे सौ वर्ष पूरे कर रहा है। मगर, उसके शताब्दी वर्ष में ही जबकि उसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, पुरातात्विक महत्ता तथा उसके अतुलनीय शिल्पगत सौंदर्य पर इतराने की खातिर राज्य सरकार द्वारा राजकीय समारोहों, जन-उत्सवों की श्रृंखला चलाये जाने की ज़रूरत थी, सरकार के नौकरशाहों ने उसे श्रीविहीन करने की ऐसी गहरी साजिश रच डाली है जिसे संस्कृति-द्रोह की संज्ञा ही दी जा सकती है।

पटना म्यूज़ियम के भीतर न सिर्फ संयुक्त बिहार के कोने-कोने से प्राप्त हज़ारों वर्ष की पुरातात्विक सामग्रियां संग्रहित हैं बल्कि देश के कुछ अन्य अग्रणी म्यूज़ियमों से उपहारस्वरूप प्राप्त अतुलनीय धरोहरें भी प्रदर्शित हैं।

महापंडित राहुल सांकृयायन ने भी इतिहास प्रसिद्ध अपनी चार बार की रोमांचकारी तिब्बत यात्रा से प्राप्त अमूल्य पांडलिपियों एवं चित्रों को भी सबसे उपयुक्त जगह जान पटना म्यूज़ियम को ही प्रदान किया था जिसकी उन्हीं दिनों देश-दुनिया के कई समृद्ध संग्रहालयों ने मुंहमांगी कीमत पर खरीदने की पेशकश की थी।

मगर, इस सबसे परे पटना म्यूज़ियम यदि दुनिया भर के पर्यटकों, संस्कृति-प्रेमियों, कला-पारखियों और आमजनों के लिए भी जिस कारण प्रबल खिंचाव का केन्द्र बना हुआ था, वह है उसकी अलौकिक सौंदर्य की प्रतिमूत्ति 2500 वर्ष पुरानी दीदारगंज यक्षिणी की प्रतिमा। इस प्रकार देखा जाय तो पटना म्यूज़ियम अपनी अति वैभवशाली धरोहरों के कारण इन दिनों प्रायः हर क्षेत्र में अपनी आभा खो रहे बिहार के माथे पर सबसे प्रदीप्त बिंदी सरीखी अपनी उपस्थिति बनाये हुए था।

हालांकि, इधर राज्य सरकार की लापरवाही और आर्थिक उपेक्षा के कारण पटना म्यूज़ियम के रख-रखाव में भारी कठिनाई आ रही थी। तिब्बत से लायी राहुल जी की पांडुलिपियों के अनुवाद का काम भी धनाभाव के कारण आधे- अधूरा पड़ा हुआ है। इसके लिए कुछ लाख रुपये की ज़रूरत है। लेकिन राज्य सरकार ने हाथ साफ खड़े कर दिये थे। इसकी कुछ अमूल्य सामग्रियों के लापता होने की भी खबर थी जिसकी कैग की रिपोर्ट से भी संकेत मिलते हैं। उम्मीद थी कि राज्य सरकार शताब्दी वर्ष में पटना म्यूज़ियम की सुध लेगी और उस पर पर्याप्त धनराशि खर्च कर उसके पुराने गौरव की पुनर्वापसी का श्रेय लेगी। लेकिन यह तो हुआ नहीं।

उल्टे, तकरीबन 500 करोड़ की विशाल राशि खर्च कर राजधानी में पटना म्यूज़ियम के समानांतर एक अन्य म्यूज़ियम – बिहार म्यूज़ियम – को खड़ा कर संस्कृति-संरक्षण के नाम पर एक भारी घोटाले का जन्म दे दिया गया। इस बिहार म्यूजियम के औचित्य पर एक रिट याचिका की सुनवाई के दौरान पटना हाईकोर्ट ने भी एक तरह से सरकार को झिड़की देते हुए कहा था कि यह सार्वजनिक साधन के भारी अपव्यय का मामला है। इसमें वैसे तो सरकार या कहें जनता से वसूले टैक्स का पैसा लगा है लेकिन इसका स्वामित्व सरकार की जगह सोसायटी एक्ट के तहत मुट्ठी भर लोगों को दे दिया गया है।

भारी हैरानी की बात यह है कि इस नये म्यूज़ियम के निर्माण की सार्थकता को यह कहकर साबित किया जा रहा है कि सरकारी संरक्षण वाले म्यूज़ियमों में नौकरशाही अड़चनों के कारण धरोहरों का रख-रखाव प्रभावशाली तरीके से नहीं हो पाता है इसलिए एक स्वतंत्र एवं वर्ल्ड क्लास म्यूज़ियम की ज़रूरत आन पड़ी थी। लेकिन जब देखा गया कि इस वल्र्ड क्लास म्यूज़ियम के संचालन के लिए जो टीम बनी है, उसमें कैसे लोग हैं, तो नीचे से ऊपर तक प्रायः बिहार सरकार के बड़े नौकरशाहों की सूरत ही नज़र आयी।

बात यही तक सीमित नहीं रही। अब जब एक तथाकथित वर्ल्ड क्लास म्यूज़ियम का भवन तैयार खड़ा हो गया तो उसका पेट भरने के लिए बड़ी संख्या में पुरातात्विक सामग्रियों की ज़रूरत भी होगी। ये चीजें आयेंगी कहां से? ये सब चीजें बाज़ार में तो बिकती है नहीं! इन्हें जुटाने के लिए दशकों तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मगर, नौकरशाहों के दिमाग में इसके आसान हल का एक ब्लू प्रिंट इस वर्ल्ड क्लास म्यूज़ियम की नींव रखने के समय ही तैयार हो गया था। उनकी गिद्ध दृष्टि जमी हुई थी ऐतिहासिक पटना म्यूज़ियम की अपार और अमूल्य पुरातात्विक धरोहरों के समृद्ध खज़ाने पर। ब्लू प्रिंट के मुताबिक उन्होंने काफी पहले ही तय कर लिया था कि ठीक शताब्दी वर्ष के मौके पर पटना म्यूज़ियम की धरोहरों पर बेहद शातिर ढंग से धावा बोल देना है। इस बेशर्म लूट के लिए उन्हें एक और खूबसूरत बहाना भी मिल गया। संयोगवश, यह गांधी की ऐतिहासिक चंपारण यात्रा का शताब्दी वर्ष भी है। फिर क्या था, इस लूट में गांधी के नाम को भी घसीट लिया गया। कहा गया कि यह वर्ल्ड क्लास म्यूज़ियम चंपारण यात्रा की शताब्दी वर्ष को समर्पित है। गांधी जो जीवन भर जनता की संपत्तियों को साम्राज्यवादी और नौकरशाही लूट से मुक्त कराने की लड़ाई लड़ते रहें, इन नौकरशाहों ने उन्हें भी जनता की एक सबसे बहुमूल्य पुरातात्विक और सांस्कृतिक संपत्ति के निर्लज्ज अपहरण के अपने घृणित कृत्य से जोड़ दिया।

दीदारगंज यक्षिणी की मूर्ति सहित तकरीबन 3 हज़ार से ऊपर विभिन्न अति विशिष्ट सामग्रियों को पटना म्यूज़ियम से निकाल कर इस वर्ल्ड क्लास म्यूज़ियम में स्थापित कर दिया गया है। और, जैसा कि खबर है अभी आगे तकरीबन 90 प्रतिशत और सामग्रियां भी स्थानांतरित होने की दिशा में चिन्हित हो चुकी हैं। पटना म्यूज़ियम को उसके शताब्दी वर्ष में ही उजाड़ने का इससे बड़ा क्लासिकल नमूना और क्या हो सकता है?

बिहार के विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय के वैभवशाली अस्तित्व को खत्म करने के लिए आगजनी का सहारा लिया गया था जिसका धुआं हम आज तक महसूस करते हैं। तो यह क्या बिहार में दुबारा उसके एक और सांस्कृतिक धरोहरों के गौरवशाली केन्द्र को ध्वस्त करने का षड़यंत्र तो नहीं? इसमें कोई धुआं तो उठता नज़र नहीं आ रहा है, मगर उससे भी गहनतर एक धुंध ज़रूर है।

 

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