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गुजरात में काँग्रेस सिर्फ चुनाव नहीं अपनी नैतिकता भी हार गई

सैद्धांतिक तौर पर लोकतंत्र में चुनाव, नागरिक को सरकार चुनने में मदद करता है। ऐसा ही एक चुनाव अभी-अभी गुजरात में समाप्त हुआ है, यह चुनाव हाल के सालों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण चुनाव रहे। देश की दो मुख्य पार्टियां भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी आमने-सामने थी। चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और गुजरात में पिछले बाईस साल से चुनी जा रही भाजपा को एक बार फिर सरकार बनाने का जनादेश मिला है।

इस बार भाजपा को गुजरात में पिछले बाईस सालों में सबसे कम 99 सीटें मिली हैं और कॉंग्रेस को सबसे अधिक 77 सीटें मिली हैं। इस चुनाव के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ देखने को मिली है वो यह है कि भाजपा और कॉंग्रेस दोनों ही जश्न मना रहे हैं। भाजपा जहां जीत का जश्न मना रही है, वहीं कॉंग्रेस इसे नैतिक जीत बताते हुए और भाजपा को 100 सीटों के अंदर रखते हुए, खुद अधिक सीटें पाने का जश्न मना रही है।

बहरहाल, इसे कई तरह से देखा जा रहा है, लेकिन यह देखना भी ज़रूरी है कि कॉंग्रेस यह चुनाव वहां हार चुकी है जहां हारने की कोई खास वजह दिखती नहीं थी। 22 साल पुरानी सरकार विरोधी लहर (anti-incumbency), तीन महत्वपूर्ण सामाजिक आन्दोलन (हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर के नेतृत्व में), मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां (जीएसटी, नोटबंदी), किसानों का कर्ज़ और उत्पादन के सही दाम न मिलना जैसे तमाम फैक्टर भाजपा के खिलाफ थे, लेकिन फिर भी भाजपा गुजरात में चुनाव जीत गयी। कॉंग्रेस की हार की वजहों में, उसके गुजरात में कमज़ोर संगठन को भी माना जा रहा है। यह कुछ हद तक सही भी है लेकिन इन सब कारणों के परे, कॉंग्रेस के नेताओं का जनता से संपर्क टूटना सबसे महत्वपूर्ण है।

कॉंग्रेस की तरफ से चुनाव जीतने के लिए कर्मण्यता का भी आभाव था। जहां भाजपा की तरफ से हर छोटे-बड़े नेता गुजरात की गलियों में धूल फांक रहे थे, वहीं कॉंग्रेस के अधिकतर नेता दिल्ली के ऐशो-आराम से निकलने को तैयार भी नहीं थे। वह इसलिए भी कि कॉंग्रेस में ज़्यादातर नेता, वकीलों की जमात से हैं जिनका जनता से कोई खास सम्पर्क नहीं है। हां सरकार बनने पर ये लोग मंत्री पद की होड़ में सबसे आगे ज़रूर होते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद गुजरात में अकेले चौंतीस बड़ी रैली करते हैं, वहीं कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी महज तीस रैली ही कर पाते हैं। मोदी ने हिमाचल के चुनाव में भी खूब रैलियां की, लेकिन शायद राहुल गांधी हिमाचल में चुनाव से पहले ही हार स्वीकार कर चुके थे। जहां भाजपा गुजरात में अपनी सरकार बचाने के लिए सर्वस्व दे रही थी तो कॉंग्रेस सरकार बनाने के लिए उतनी मेहनत करती दिख नहीं रही थी।

शायद राहुल गांधी को अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले की मेहनत को देखना चाहिए था। अखिलेश यादव ने साइकल से लगभग हर गांव-कस्बे में जाकर लोगों से सीधा संपर्क बनाया था, लोगों में विश्वास पैदा किया था। बिहार में तेजस्वी यादव ने भी जन-संपर्क से अपनी साख बनाने में कामयाबी हासिल की है। राहुल गांधी को अब बड़े नेता की छवि से निकलकर जननेता बनने की कवायद शुरू करनी चाहिए, शायद वो भूल गए हैं कि उनकी दादी इंदिरा गांधी आपातकाल के बाद हाथी पर बैठकर बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बेलछी गांव पहुंच गई थी और उस घटना ने इंदिरा को फिर से इंदिरा बना दिया था।

राहुल गांधी की कॉंग्रेस को दिल्ली से निकलना होगा, लोक-जीवन में रमना होगा, जनता के साथ जुड़ना होगा, मेहनत करनी होगी। उनके बार-बार जनता के बीच जाने से जनता में विश्वास पैदा होगा और लोग राहुल गांधी तथा कॉंग्रेस को अपने आस-पास महसूस कर पाएंगे। उन्हें राज्यों के, कस्बों के और गांवों के स्थानीय मुद्दे समझने होंगे, अभी तो उनके भाषणों में राष्ट्रीय मुद्दे ही ज़्यादा झलकते हैं।

एक अन्य महत्वपूर्ण चीज़ कॉंग्रेस की राजनीति है, भाजपा की राजनीति के उलट कॉंग्रेस की राजनीति गुजरात में अलग नहीं हो पाई। हिंदुत्व के मुद्दे पर कॉंग्रेस डिफेंसिव दिख रही थी। चाहे कुछ भी हो कॉंग्रेस को समग्र, सहिष्णु, धर्म-निरपेक्ष राजनीति के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए। गुजरात में मंदिर जाकर आशीर्वाद पाना सही भी था तो राहुल गांधी को मस्जिद या मज़ारों पर भी जाना चाहिए था। सांप्रदायिक राजनीति का तोड़ सांप्रदायिक राजनीति से मिलना कतई संभव नहीं है। भ्रम को भ्रम से नहीं तोड़ा जा सकता।

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के लिए हिंदुत्व की राजनीति करना सबसे आसान था खासकर तब जब हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर भारत का विभाजन हो चुका था। लेकिन नेहरु ने उस राजनीति के बदले भारत को संवैधानिक गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया।

राहुल गांधी को कॉंग्रेस की मूल विचारधारा के साथ खड़े रहना चाहिए। इस देश को इस राजनीति ने ही खड़ा किया है, गुजरात चुनाव राहुल गांधी और कॉंग्रेस के लिए एक सबक है। उन्हें जनता के बीच चुनाव में नहीं बल्कि हर समय उपलब्ध रहना होगा, उन्हें जनता से संपर्क साधना होगा और यह काम वकीलों से नहीं बल्कि जननेता से ही हो सकता है। बहरहाल कॉंग्रेस चुनाव हार चुकी है और नैतिक जीत तब होती जब कॉंग्रेस अपने मूल विचार के साथ समझौता नहीं करती।

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