आये दिन स्कूली छात्रों की आत्महत्या शिक्षा में मौजूद अनुशासन और दंड की गंभीर समस्या का दुःखद अंजाम है। स्कूलों में शिक्षण का इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि एक लंबा दौर रहा है जब यह विश्वास किया जाता था कि ‘यदि डण्डा हटाएंगें तो विद्यार्थी बिगड़ जाएगा।’ शायद इसी कारण फ्रेंच दार्शनिक ‘फूको’ स्कूल को जेल, फैक्ट्री और अस्पताल के समतुल्य रखते हैं और बताते हैं कि अनुशासन, शक्ति और सत्ता के अभ्यास का साधन है जिसमें तरह-तरह के उपकरण सम्मिलित रहते हैं। इनका उद्देश्य ‘विनम्र शरीर’ और ‘आज्ञाकारी चेतना’* का विकास करना होता है। हालांकि अनुशासन सदा नकारात्मक हो यह आवश्यक नहीं है लेकिन अनुशासन को दंड, नियंत्रण और नियमन के रूप में इस्तेमाल करते हुए इतना भय पैदा करना कि कोई आत्महया के लिए तत्पर हो जाए इसके चरम* नकारात्मक रूप का प्रमाण है।
चिंता की बात है कि शिक्षा के प्रगतिशील आंदोलन को नीति और अभ्यास में बनाए रखने की सहमति के बावजूद अनुशासन के बहाने दण्ड और पुरस्कार का सिद्धान्त न केवल कायम है बल्कि जैसा फूको ने कहा है ‘विनम्र शरीर’ और ‘आज्ञाकारी चेतना’ के आदर्श को भी अपनाए हुए है। इस आदर्श में पहला सूत्र नियम का होता है। अनुशासन के ये नियम विद्यार्थियों पर अपेक्षित व्यवहार की चादर ओढ़ा देते हैं। इसका पालन न करना उन्हें शिक्षक या इस जैसे किसी अन्य ताकतवर के ‘गुस्से’ का भागी बना देता है।
ये प्रवृत्तियां अनुशासन के नाम पर शारीरिक स्थिरता, मौन, एकरूप व्यवहार करने और सत्ता के अनुपालन को वैध ठहराती हैं। इन विविध रूपों में अनुशासन को दण्ड से बचने का पुरस्कार सिद्ध कर दिया जाता है। अन्ततः यह पूरी प्रक्रिया शिक्षण में विद्यार्थियों को निष्क्रिय बना देती है। इस तरह के निष्क्रिय स्कूलों के कायदों को देखिए। यहां विद्यार्थियों को लगातार निगरानी में रखा जाता है। कौन, कब, कहां, क्या कर रहा है इसकी मुकम्मल जानकारी न केवल शिक्षिका या शिक्षक रखते हैं, बल्कि विद्यार्थियों तक संप्रेषित किया जाता है कि उनकी निगरानी हो रही है।
अक्सर इस तरह के औजारों को बदमाश बच्चों को नियंत्रित करने का तरीका बताया जाता है। जबकि वास्तविकता है कि यह तरीका अनुशासन के उन चरों* और परिस्थितियों को दूर करने की कोशिश है जो एक बड़े या ताकतवर और छोटे या कमज़ोर के बीच आज्ञापालक* और अनुगामी* होने के संबंध को कमज़ोर कर सकते हैं। इसी प्रवृत्ति का एक अन्य उदाहरण विद्यार्थियों को कम तेज़ और अधिक तेज़ जैसी रैंक देना है। रैंक में अंतर का कारण अनुशासित होने को बताना है। इस बहाने विद्यार्थियों के बीच बातचीत को हतोत्साहित किया जाता है और लगातार उन्हें अनुशासन का बोध कराया जाता है।
आप किसी भी स्कूल और कक्षा में ‘कोई समय बर्बाद न करें’, ‘कोई आलसी न हो’ और ‘सभी काम समय पर जमा करें’ जैसे वाक्यों का प्रयोग देख सकते हैं। ये वाक्य विद्यार्थियों को ध्यान दिलाते रहते हैं कि उन्हें अनुशासन के नियम से विचलित नहीं होना है। इसी तरह नकारात्मक पहचानों और ठप्पों का प्रयोग जैसे- आलसी, कामचोर, बातूनी और बैकबेंचर कहना अन्य औज़ार हैं जो निष्क्रियता को बढ़ावा देते हैं। ऐसे विशेषणों का प्रयोग करने वाले इन्हें विद्याार्थियों को ‘ठीक करने के’ उपकरण मानते हैं।
सवाल ये है कि असफल घोषित करने के ये ठप्पे जो विद्यार्थियों को अपमानित करते हैं क्या वे सकारात्मक हो सकते हैं? इस अपमान करने वाली और मानसिक हिंसा की प्रतिक्रिया में आत्महत्या की घटना होती है। कहने का अर्थ है कि अनुशासन के नाम पर नियंत्रण के लिए धमकियों का प्रयोग, प्रतीकात्मक तरीके से प्रतिष्ठा और सम्मान को चोट पहुंचाना, सभी को एक आकार में फिट करने के लक्ष्य से प्रेरित व्यवहार, सत्ता को स्वीकृति तो दिला सकते हैं लेकिन एक व्यक्ति की चेतना को शून्य की ओर भी ढकेलने का कार्य करते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि नियंत्रण का कठोर ताना-बाना न केवल संस्था की संस्कृति में स्वीकार्य है बल्कि इसकी गहनता पद के अनुसार घटती-बढ़ती है। विडंबना देखिए जिन शिक्षकों को मार्गदर्शक और अभिभावक के स्थान पर रखते हैं वे ऐसे व्यवहारों को सीखने की शर्त मानते हैं। अनुशासन के नाम पर किसी की आवाज़ को दबा देना न मालूम शिक्षा और शिक्षण के किस लक्ष्य की पूर्ति करता है और न जाने क्यों आज भी हमारे दिमाग में अच्छे विद्यार्थी की कसौटी का मुख्य निर्धारक उसका आज्ञापालक और अनुगामी होना है?
अनुशासन का यह पाठ स्कूल के रास्ते घर-परिवार तक पहुंच चुका है। आजकल के ‘शिक्षित’ माता-पिता भी सीखने और अनुशासित रहने को एक दूसरे का पर्यायवाची मान रहे हैं। अनुशासन की यह कैंची स्वाभाविकता और नैसर्गिक प्रतिभा के पर कतरने को उतावली है। इन प्रभावों में हम ऐसे समाज के सदस्य बन रहे हैं जो अनुशासन की ढाल से अपने अहम को तुष्ट करना चाहते हैं। अज्ञानता को छुपाना चाहता हैं, खुद को औरों से अलग दिखाना चाहता हैं और सबसे बढ़कर असहिष्णु होने की कमज़ोरी को अनुशासन के रास्ते वैध ठहराना चाहता है। क्यों न हम खुद से सवाल करें कि क्या विद्यार्थियों की स्वाभाविकता और नैसर्गिकता के बलिदान के बिना हम उन्हें वयस्क नहीं बना सकते? क्यों अनुशासन का चाबुक स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा के मूल्य को हांक रहा है? क्यों विद्यालय जैसी संस्थाएं जेल, अस्पताल और पागलखाने जैसी जान पड़ रही हैं?
फेसबुक फीचर्ड फोटो और थंबनेल फोटो प्रतीकात्मक हैं।
1)- आज्ञाकारी चेतना- Obedient Consciousness 2)- चरम- Peak 3)- वैयक्तिकता- Individuality
4)- चरों- Variables 5)- आज्ञापालक- Obedient 6)- अनुगामी- Follower