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क्यों आसान नहीं है लड़कियों का लड़कों की तरह बेफिक्र हो जाना?

सामाजिक जीवन में गरिमा और सम्मान के तमाम दावों के बावजूद देश-दुनिया की तमाम सभ्यताओं ने महिलाओं को सांस्कृतिक स्तर पर दोयम दर्जे का ही नागरिक माना है। सामाजिक जीवन में इस मान्यता के साथ महिलाओं को सदाचार सिखाने की कोशिश होश संभालने से ही शुरू हो जाती है जो ताउम्र चलती रहती है।

कम बोलना, ऊंची आवाज़ में ना बोलना, ना हंसना, सुबह जल्दी उठना, बिना शिकायत के घर के काम करना और पुरुषों से बराबरी के बारे में ना सोचने जैसी बातों से लड़कियों को सामाजिक सदाचार सिखाने का नैतिक सिलेबस से शुरू हो जाता है। ये बंदिशें बचपन से ही केवल लिखने-पढ़ने तक ही नहीं सीमित नहीं होता है बल्कि खेल-कूद जैसी क्रियाओं में भी साफ दिखाई देती हैं। लड़को के लिए तमाम शारिरीक क्षमता वाले खेल और लड़कियों के हिस्से में पारंपरिक डेगा-पानी, चिड़िया उड़..तोता उड़ या घर-घर जैसे खेल।

लड़के-लड़कियों के बीच सामाजिक या लैंगिक समानता की तमाम कोशिशों के बाद भी सामाजिक ‘सदाचार’ की इन कोशिशों में कोई कमी देखने को नहीं मिलती है। इसमें केवल परिवार ही नहीं, नाते-रिश्तेदार, पड़ोसी और तो और कभी-कभी राह चलते अंजान लोग भी ‘सदाचार’ का यह पाठ नैतिक तानों से दे ही देते हैं।

ये पुरुषों का काम है तुम्हारा नहीं, तुम्हे इसके बारे में नहीं सोचना है आदि जैसी हिदायतों का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं होता है। लड़कियों को दी जाने वाली छोटी-बड़ी हिदायतों का एक पाठ यह भी है कि बचपन से ही उन्हें घर के पुरुषों के इशारों को ‘डीकोड’ करना भी सीखाया जाता है। आंखे तरेरकर पुरुषों के देखने की भाषा बचपन से ही लड़कियों के दिल में असुरक्षा के भाव पुख्ता कर देती है।

हिदायतों की इस सामाजिक सूची का लड़कियों के जीवन पर यह असर होता है कि धीरे-धीरे उनका मन में असुरक्षा का भाव इतना मजबूत हो जाता है कि वो अपने ज़रूरी फैसले लेने के बारे में सोच भी नहीं पाती हैं। ज़ाहिर है कि लड़कियों के लिए सामाजिक जीवन में बेफिक्र होना आसान नहीं है।

जर्मन दार्शनिक एंगेल्स (Friedrich Engels) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द ओरिजिन ऑफ द फैमिली प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट’ में महिलाओं के साथ इस तरह के सामाजीकरण के पीछे मूल वजह निजी संपत्ति और पूंजीवाद के विकास को बताया। उनके मुताबिक महिलाओं का शारीरिक और लैंगिक श्रम- संतान उत्पत्ति, परिवार और निजी संपत्ति की देखभाल के लिए उपयुक्त माना जाता है। निजी संपत्ति की संस्था के उदय और पुरुषों के हाथ में संपत्ति की स्थापना ने महिलाओं के अस्तित्व और उनकी पहचान को हाशिये पर ला दिया।

वहीं अमेरिकी फेमिनिस्ट सुलेमिथ फायरस्टोन (Shulamith Firestone) अपनी किताब “द डायलेक्टिक अॉफ सेक्स” में महिलाओं के हाशिये पर होने की मूल वजह आर्थिक नहीं शारीरिक मानती हैं। उनके अनुसार लैंगिक असमानता के सदाचारी पाठ की वजह आर्थिक नहीं बल्कि शारीरिक होती है। इसको समाप्त करने के लिए सांस्कृतिक स्तर पर भेदभाव कम करने की कोशिशें करने की ज़रूरत है।

ज़ाहिर है कि लैंगिक समानता को वास्तविक रूप में लाने के लिए समाज/परिवार और सामाजिक संस्थाओं के सदस्यों को अपनी सोच में बदलाव करने की ज़रूरत है। लड़कियों के जीवन में जाने-अंजाने भरे गए इस खौफ को सकारात्मक दिशा देने के लिए तमाम सामाजिक दुशवारियों से मुक्त होना ज़रूरी है।

सामाजिक और नैतिक दवाबों में उलझा समाज किसी भी लड़की को स्वतंत्र इकाई के रूप में नहीं बल्कि सिर्फ एक कमोडिटी के रूप में पहचानता है। जन्म से लेकर ज़िंदगी के तमाम चरणों में सिर्फ आधी आबादी के साथ जो भेदभाव बरता जाता है, वहां तमाम संवैधानिक घोषणाएं एक कोरी औपचारिकता बनकर रह जाती हैं और लड़कियां अपनी खुदमुख्तारी के बारे में सोच भी नहीं पाती हैं।

फोटो आभार: getty images

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