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पहले माहवारी पर GST का लगान हटाइए, फिर महिला सम्मान की बात कीजिए

मुख्यधारा की मीडिया के “फाइंव सेंकड फ्रेम” की बहसों में महिलाओं से जुड़े वही सवाल बहस के रूप में अपनी जगह बना पाते हैं जो राजनीतिक रूप से संवेदनशील हो पाते हैं। हलिया “पद्मावती विवाद” भी राजनीतिक सक्रियता की वजह से ही मीडिया में प्रमुख बना हुआ था, जिसने महिलाओं से जुड़े कई अन्य सवालों को बहस का हिस्सा तक नहीं बनने दिया।

गजब का विरोधाभास है कि देश की आधी आबादी महिलाओं की है, लेकिन उन्हें अपने छोटे से छोटे हक के लिए भी पुरुष तंत्र के साथ संस्थाओं में मौजूद पुरूषवादी सोच से भी लड़ना पड़ता है।

मौजूदा सरकार की नई टैक्स नीति में महिला स्वास्थ्य से जुड़े सैनेटरी नैपकिन पर 12% का लग्ज़री टैक्स लगाया गया है, जिस पर कुछ दिनों पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने कुछ सवाल उठाए थे। पहला सौंदर्य प्रसाधनों को जीएसटी से बाहर रखा, लेकिन सैनेटरी नैपकिन पर जीएसटी लगा दिया। दूसरा, जीएसटी काउंसिल में एक भी महिला सदस्य का न होना।

वैसे किसी भी काउंसिल में एक भी महिला सदस्य को शामिल नहीं किया जाना, ये नया नहीं है। पूर्व की कई सरकारों में भी यह होता रहा है। यह, यही दिखाता है कि महिलाओं के विषयों की प्रासंगिकता का महत्व किसी भी चुनी हुई सरकार में किस तरह का होता है? महिला नेत्री को महिला और बाल विकास मंत्रालय का प्रमुख बनाकर सरकारें अपनी ज़िम्मेदारी को खत्म मान लेती हैं।

देश की 35.5 करोड़ औरतें अब भी पीरियड्स के दौरान कपड़े के टुकड़े, राख, लकड़ी की छीलन और फूस इस्तेमाल करती हैं।

सैनेटरी नैपकिन पर सरकार की गंभीरता इसलिए भी अधिक ज़रूरी है, क्योंकि देश में 88% यानी 35.5 करोड़ औरतें अब भी पीरियड्स के दौरान सैनेटरी नैपकिन की बजाय कपड़े के टुकड़े, राख, लकड़ी की छीलन और फूस इस्तेमाल करती हैं। ऐसे में इसे सस्ता किया जाना चाहिए ताकि अधिक से अधिक औरतें इसका इस्तेमाल कर सकें।

साल 2014 की एक स्टडी कहती है कि उड़ीसा में पीरियड्स शुरू होने पर 23% लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय पर दिए माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन दिशानिर्देश के अनुसार 60% लड़कियां माहवारी की वजह से स्कूल जाना बंद कर देती हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट से पहले बंबई हाईकोर्ट भी सैनेटरी नैपकिन से जीएसटी हटाने की मांग को लेकर नोटिस जारी कर चुका है। कोई भी सकारात्मक पहल इस दिशा में अभी तक देखने को नहीं मिली है, जबकि टीवी पर सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन प्रमुखता से दिखाए जाते हैं, जिससे लोगों में इसके इस्तेमाल के प्रति जागरूकता बढ़ सके।

कई महिला संगठन सरकार से अपील कर रहे हैं कि सैनेटरी नैपकिन को जीएसटी के दायरे में लाकर इसे आम लोगों की पहुंच से बाहर न किया जाए। सरकार के इस फैसले को लेकर हलचल मची है, मुख्यधारा मीडिया की अनदेखी के बाद भी सोशल मीडिया पर शीसेज़ नाम की एक संस्था #LahukaLagaan नाम से कैंपेन चला रही है, जिसमें सैनेटरी नैपकिन को टैक्स फ्री करने का मुद्दा उठाया जा रहा है। सैनेटरी नैपकिन के इस्तेमाल से पर्यावरण को अधिक नुकसान न हो इस दिशा में भी कई कोशिशें चल रही हैं, सरकार की कर नीति से इन प्रयासों को भी धक्का पहुंचा है।

यह अधिक विरोधाभासी हो जाता है जब सरकार खुद स्वच्छ भारत मिशन में सैनेटरी नैपकिन के इस्तेमाल की बात भी करती है और इस पर टैक्स भी लगा देती है।

यह और अधिक चिंताजनक हो जाता है जब सरकार कुमकुम, बिंदी, सिंदूर, आलता और अन्य ब्यूटी प्रोडक्ट्स को जीएसटी के दायरे से बाहर रखती है। रेट लिस्ट के अनुसार करवाचौथ की थाली को सरकार ने टैक्स फ्री रखा है पर सैनेटरी नैपकिन को नहीं। क्या महिलाओं के लिए करवाचौथ की थाली उनके हेल्थ और हाइजीन से ज़्यादा ज़रूरी है?

कुछ राज्य सरकारें और सामाजिक संस्थाएं हर स्कूल में सैनेटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन लगाने की कोशिशें कर रही हैं। केरल ऐसा करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है, ये नियम हायर सेकेंडरी स्कूलों में लागू होगा। धीरे-धीरे ही सही पर देश की महिलाएं जो निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में नयी-नयी उपलब्धियां हासिल कर रही हैं, ऐसे में महिला स्वास्थ्य से जुड़े विषयों पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।

महिला स्वास्थ्य से जुड़े विषयों को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। महिलाओं की अस्मिता, स्वतंत्रता और समानता के सवाल केवल ट्रोल होकर हाशिए पर नहीं ढ़केले जा सकते हैं। ज़रूरत महिलाओं से जुड़े सवालों पर संवेदनशील होकर सरकार और सामाजिक संस्थाओं से सवाल करने की है।

सरकार, समाज और परिवार के सदस्यों को भी महिलाओं के सैनेटरी नैपकिन की ज़रूरत को समझना ज़रूरी है, ताकि इस विषय पर बात करना वर्जना ना बने बल्कि इसे सामाजिक या राजनीतिक मुद्दे के रूप में देखा जा सके।

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