Site icon Youth Ki Awaaz

गुजरात चुनाव में काँग्रेस के लिए कितने फायदेमंद होंगे राहुल के बदले हुए तेवर?

गुजरात में वोटिंग हो चुकी है, सभी न्यूज़ चैनल अपना-अपना एग्ज़िट पोल लेकर कूद पड़े हैं। लगभग सभी एग्ज़िट पोल मे भाजपा की सरकार बनने की सम्भावना जतायी जा रही है, कोई भाजपा को 108 सीटें दे रहा है तो कोई 135। अंदाज़ों के इस आईने से धूल तो 18 दिसम्बर को ही साफ होगी, अभी तो सब धुंधला-धुंधला सा ही है। ये कहने में कोई भी गुरेज़ नही करेगा कि गुजरात में मुकाबला कांटे का था। इस चुनाव ने लम्बे समय के बाद प्रधानमंत्री को ऐसे बयान देने पर विवश कर दिया था, जैसे शायद इससे पहले उन्होने दिल्ली चुनाव मे केजरीवाल के खिलाफ या बिहार विधानसभा चुनाव मे नीतीश कुमार के खिलाफ दिए थे।

एक व्यक्ति जो मोदी के बाद अगर इस चुनाव के दौरन सबसे अधिक चर्चा के केन्द्र में रहा तो वो हैं राहुल गांधी। जी हां, कुछ महीनों पहले कभी जो उपहास का कारण हुआ करते थे, वो गुजरात चुनावों के दौरान परिपक्व और गम्भीर नेता की छवि के साथ उभरकर सामने आए। गुजरात चुनाव के परिणाम, राहुल गांधी के लिए भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर पहली हार भी सबित हो सकते है और जीत भी। मगर इतना तो तय है की इन चुनावों में राहुल गांधी ने भाजपा की धड़कने बढ़ा दी हैं।

जिस काँग्रेस को भाजपा ने बेजान और नेतृत्वहीन समझा वह इस प्रकार नवजीवन प्राप्त कर लेगी शायद भाजपा को इसका अंदाज़ा भी ना था। अब इसे राहुल की बदली हुई छवि का असर कहा जाए या गुजरात में भाजपा की 22 साल की ऐंटिइनकंबैंसी का उपहार, गुजरात चुनाव के दौरान काँग्रेस मजबूत प्रतिद्वन्दी के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करने में सफल रही।

राहुल गांधी को जिस चीज़ ने परिपक्व और गंभीर बनाया वह थे उनके सम्भले हुए लफ्ज़। इससे पहले अपने ऊल-ज़लूल बयानों और फिसलती ज़बान के लिए हास्य का पात्र बन चुके राहुल गांधी ने इस बार किसी को कोई मौका नही दिया। शायद भाजपा आईटी सेल वालों की इस बार पगार भी कटी हो, बस एक ही बयान निकाल पाए वो भी एडिट किया हुआ- आलू से सोना बनाने वाली मशीन का। राहुल अच्छी तरह समझ चुके थे कि यदि गुजरात चुनाव मे राष्ट्रीय मुद्दे और देश सुरक्षा के मुद्दे आए तो उनके लिए मुश्किल हो सकती है।

उन्होंने वही मुद्दे चुने जो भाजपा के गले की फांस बन चुके थे जैसे नोटबंदी, जीएसटी, गुजरात के किसानों की समस्या, पाटीदार आंदोलन, दलित आंदोलन या फिर ओबीसी वर्ग की नाराजगी और मोदी सरकार को गरीब विरोधी और बिज़नेसमैन लोगों के करीब बताना भी वो नहीं भूले।

राहुल ने चुनाव प्रचार की शुरुआत से ही क्षेत्रीय मुद्दों को अपने भाषणों मे तवज्जो दी और अपने संवाद कौशल मे गजब की सटीकता लेकर आए, जो पहले नहीं दिखती थी। शायद पहले वह अपने भाषणों मे खुद के विचारों को ठीक से शब्द नहीं दे पाते थे। उन्होने हिंदी बोलने मे भी अपने शब्दों का दायरा बढ़ाया है।

अब राहुल गांधी की ये सब कोशिशें गुजरात चुनाव मे रंग लाएंगी या नहीं यह तो 18 दिसंबर को ही पता चलेगा। हां इतना तो तय है कि राहुल के व्यक्तित्व और उनकी भाषा शैली का यह बदलाव उनके खुद के राजनीतिक जीवन और मूर्छित पड़ी काँग्रेस के लिए संजीवनी का काम करेगा।

Exit mobile version