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अफराज़ुल की चीखों के बाद मेरी बेस्टफ्रेंड खुद को अल्पसंख्यक मानने लगी है

रात के तीन बज रहे हैं, मैंने वो वीडियो देखा। मैंने राजस्थान में हुई उस वीभत्स हत्या का वीडियो देखा, नहीं! मुझे उल्टी नहीं आई। मुझे बस ज़ोर से चीखने का जी हुआ। मैंने अपना मुंह अपनी हथेली से दबा रखा था और मेरी आखें फटी हुई थी। मैं भीतर अपनी चीख दबाना चाह रही थी। मैं गुस्से से अपने दांत पीस रही थी, उस चीख में असहाय तड़प थी। लेकिन मैं क्या करती? बस तड़पकर रह गई!

मैंने अखलाक, पहलू खान और जुनैद की चीखें नहीं सुनी थी। मैंने उन्हें अपने हत्यारे को ‘ए बाबू, ए बाबू’ कहकर पुकारते नहीं सुना। मैंने अफराज़ुल की तरह किसी को कराहते और जलते हुए नहीं देखा था।

मैं हत्या तो भूल जाती लेकिन उसकी ‘बाबू, बाबू’ की गुहार कैसे भूलूंगी? मैं उसका कराहना कैसे भूलूंगी? मैं ये कैसे भूलूंगी कि उसे देख मैं तड़प-तड़प कर रह गई और कुछ नहीं कर सकी? मैं ये कैसे भूलूंगी कि मेरी बेस्ट फ्रेंड जो कि मुसलमान है, ने पहली बार खुद को ‘अल्पसंख्यक’ मान लिया है। उसने फ़ेसबुक पर पोस्ट लिखा है, मैं उसका पोस्ट कई बार पढ़ चुकी हूं। रोई नहीं हूं अभी तक, पर एक बार और पढ़ा तो रो दूंगी। इस हत्या से पहले तक मेरी सहेली यह तो जानती थी कि वो मुसलमान है, क्योंकि उसे बार-बार यह याद दिलाया जाता था। लेकिन पहली बार उसने खुद को अल्पसंख्यक मान लिया है।

मैं सोचती हूं कि मेरी सहेली ने अखलाक से लेकर जुनैद तक, न जाने खुद को कितनी हिम्मत से समझाया होगा कि वो बस एक हिन्दुस्तानी है। भले ही मुसलमान है पर हिन्दुस्तानी है। लेकिन आज वो ख़ुद को किसी संख्या का हिस्सा मान रही है। वो संख्या ‘बहु’ नहीं ‘अल्प’ है। मेरी सहेली के ज़हन में ये कैसी बात डाल दी उस हत्यारे ने? मेरी सहेली कहीं हताश तो नहीं हो गई? फिर क्यों मान लिया उसने कि वो अल्पसंख्यक है?

क्या सत्ता के शीर्ष पर बैठे उन नेताओं का कोई जिगरी मुसलमान मित्र नहीं है? क्या हमारे सीजेआई का कोई मुस्लिम दोस्त नहीं है? क्या हमारे सेनाध्यक्ष महोदय मुसलमानों से दोस्ती नहीं रखते? तो क्या उन सभी मुसलमान मित्रों ने वही महसूस किया जो मेरी सहेली ने किया? क्या उन्होंने भी मान लिया कि वो अल्पसंख्यक हैं? ये डरावना नहीं लगता आप सबको?

मैं बहुत बेचैन हूं यह लिखते हुए। समाज के ऊपर विचारधारा की चादर डाल, भीतर ही भीतर उसे खोखला बनाया जा रहा है। लोग हत्यारे हो रहे हैं। हमारा आज, हमारा भविष्य भयावह होता जा रहा है। मुझे मेरी सहेली की आंखें नज़र आ रही हैं। उसमें डर नहीं है, एक निडर हताशा है। वो आंखें किसी से डरती नहीं मगर अब वो किसी पर भरोसा नहीं करतीं। मुझे डर लग रहा है। वह मुझपर भरोसा करना न छोड़ दे!

मुझे ख़ुद के लिए, अपने भाइयों के लिए भी डर लग रहा है। यह पागल होते लोग! उनकी अंधी आंखें! उनके हाथ का खंजर कहीं मुझ पर न चल जाए। ये लोग सुनते नहीं, ये बहरे हो चुके हैं। इन्हें कुछ दिखाई नहीं देता, इन्हें मैं भी नहीं दिखूंगी, इन्हें मेरे भाई भी नहीं दिखेंगे। मैं किस संख्या में गिनूं खुद को? मैं अपनी हताशा लेकर कहां जाऊं? यह बहुसंख्यक भीड़ अगर हत्यारी है, तो मैं हिस्सा नहीं हूं इसका। फिर मैं किस भीड़ के पास जाऊं?

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