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आर्टिकल लिखते हुए कैसे करें फैक्ट चेक ताकि ना हो कोई गलती

आपने 4-5 घंटे एक आर्टिकल पे खर्च किए, उसे यूथ की आवाज़ पर पब्लिश किया और लो! एक मेल आया कि भाई आर्टिकल में फैक्ट सही नहीं हैं। हो गई ना इतनी मेहनत खराब। कई बार ना चाहते हुए भी हम से गलतियां हो जाती हैं, आपका इरादा तो सही होता है लेकिन एक गलत फैक्ट या एक गलत जानकारी के कारण सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है।

हो सकता है कि ऊपर कही बातें हतोत्साहित करने वाली लगें, लेकिन इस तरह की गलतियों से बचा जा सकता है। आज हम यहां आपको बेहद आसान शब्दों में बताएंगे कि लिखते समय इन गलतियों से कैसे बचा जाए।

1. मुझे यह कैसे पता है?

अच्छा फर्ज़ कीजिए कि आपने गौरी लंकेश की हत्या पर निजी विचार लिखें और आपने लिखा कि भारत 2017 में पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश रहा। बेशक गौरी लंकेश की हत्या एक नृशंस अपराध था और भारत में पिछले कुछ समय में प्रेस की आज़ादी पर हमले बढ़े हैं। लेकिन क्या भारत 2017 में पत्रकारों के लिए सबसे असुरक्षित देश था? तो आपको बता दिया जाए कि आंकड़े ऐसा नहीं कहते हैं।

अगर आपने लिखने से पहले यह सवाल खुद से किया होता कि ‘मुझे यह कैसे पता है?’ तो आपने 2017 में दुनिया के अलग-अलग देशों में हुई पत्रकारों की हत्याओं की तुलना की होती और यह गलत जानकारी आपके लेख में नहीं होती। खुद से ये सवाल पूछने पर कि कोई जानकारी हमें कैसे पता है, हमें अपने अन्दर के पूर्वाग्रहों को भी खत्म करने में मदद मिलती है।

2. आपने यह कैसे जाना?

आपने लेख में पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश होने वाली बात सिर्फ अपनी निजी राय या सहजवृत्ती के आधार पर लिखी। इस तरह का लेख लिखते हुए खुद से पहला सवाल पूछकर, पाठकों को गलत जानकारी देने से बचा जा सकता है। ध्यान रखें कि आप खुद सभी जानकारियों या विचारों के श्रोत नहीं हैं। कभी-कभी आपको इनके (जानकारियों और विचारों) के लिए अन्य श्रोतों पर भी निर्भर होना पड़ता है। अब अगली कवायद है उन श्रोतों से पूछना कि आपको ये कैसे पता है?

यह सवाल करने पर आपको पता चल जाता है कि वो अन्य श्रोत या लोग कितने विश्वसनीय हैं। अगर वो भारत को पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश सिर्फ इसलिए बता रहे हैं क्यूंकि ऐसा उन्होंने ‘किसी चर्चा में सुना है’ या ‘हाल ही में एक जानी-मानी पत्रकार की हत्या कर दी गई।’  तो इसका अर्थ है कि वो बस कयास लगा रहे हैं और उनके पास सही जानकारी नहीं है। मतलब ये हुआ कि आपको अभी भी सही आंकड़े तलाशने की ज़रूरत है।

3. अन्य श्रोतों को यह कैसे पता है?

कभी-कभी हमारी जानकारी या हमारे किसी विचार का श्रोत, ना हम खुद होते हैं और ना ही हमारे आस-पास मौजूद कोई अन्य व्यक्ति। ये कोई रिपोर्ट हो सकती है या फिर किसी न्यूज़ चैनल पर होने वाली कोई चर्चा।

कई बार ऐसे लोग जो आमतौर पर फर्जी तथ्यों को पहचान जाते हैं वो भी धोखा खा सकते हैं, खासतौर पर अगर जानकारी किसी भरोसेमंद श्रोत से मिल रही हो। इसी वजह से मीडिया पर भी सवाल उठाने की खास ज़रूरत है। अब ऐसा कैसे किया जाए? वो ऐसे कि एक बार फिर हम ये सवाल पूछें कि ‘वो (अन्य श्रोत) यह कैसे जानते हैं?’

अब न्यूज़ चैनल या किसी अखबार से हर बार ये सवाल करना तो संभव है नहीं, लेकिन ऐसे तरीके हैं जिनसे इस समस्या को सुलझाया जा सकता है। अधिकांश पत्रकार या लेखक अपनी जानकारी के श्रोत का ज़िक्र ज़रूर करते हैं। अगर वो कह रहे हैं कि फलां देश पत्रकारों के लिए सबसे ज़्यादा असुरक्षित है तो वो ये भी बताएंगे कि उन्हें ये कहां से पता चला।

उदाहरण: 2017 में पत्रकारों की हत्या से सम्बंधित आंकड़े जमा कर रही पत्रकार सुरक्षा समिति (Committee to Protect Journalists या CPJ) नाम की एक गैर सरकारी संस्था के अनुसार 2017 में इराक, पत्रकारों के लिए दुनिया का सबसे असुरक्षित देश रहा, जहां अभी तक काम के दौरान 8 पत्रकारों के मारे जाने की संभावना है।

अगर आप कुछ ऐसा पढ़ें या देखें जिसमें जानकारी के श्रोत के बारे में नहीं बताया जाता है तो आपको जानकारी के श्रोत की तलाश जारी रखनी है।

4.कितनी भरोसेमंद है यह जानकारी?

ऊपर के तीन सवालों के बाद भी आपको और जानने की ज़रूरत है। अब CPJ को ही ले लीजिए, मैंने देखा है कि अक्सर ये आंकड़ों के लिए न्यूज़ रिपोर्ट्स पर निर्भर करते हैं, ये मारे गए हर पत्रकार पर नज़र नहीं रखते। ऐसे में अगर किसी पत्रकार की मौत का मामला दर्ज नहीं हो पाता है तो काफी हद तक संभव है कि उनके आंकड़ों में भी यह शामिल नहीं होगा।

तो घूम-फिर कर हम वहीं पहुंच जाते हैं कि हमारे श्रोत को कोई जानकारी कैसे मिली? लेकिन यहीं इस समस्या का हल भी छुपा हुआ है। आपको बस लगातार ये सवाल करते रहना है कि उन्हें ये जानकारी आखिर मिली कैसे? अब ऐसे में भरोसेमंद जानकारी जुटा पाना तो काफी मुश्किल हो जाएगा, है ना? इसी वजह से चश्मदीद से मिली जानकारी को सबसे भरोसेमंद माना जाता है। अब ये सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन अगर कोई किसी की मौत का चश्मदीद हो तो वो उसे लिखने के लिए स्वतंत्र है, जैसे- “मैंने गब्बर नाम के पत्रकार को मरते हुए देखा।” लेकिन अगर कोई इन तथ्यों की पुष्टि करे तो इसे पढ़ने के बाद उसके मन में दो सवाल तो आएंगे ही।

पहला कि क्या उस पत्रकार की सही में मौत हो चुकी है? अर्थात मौत की पुष्टि कर सकने वाले संस्थान जैसे किसी हॉस्पिटल या किसी मेडिकल प्रैक्टिशनर ने इस बात की पुष्टि की है कि फलां व्यक्ति की मौत हो चुकी है? और दूसरा कि क्या गब्बर सही में एक पत्रकार था? अर्थात क्या किसी संस्थान ने ‘गब्बर’ के पत्रकार होने की पुष्टि की है या ‘गब्बर’ के पत्रकारिता से सम्बंधित काम का कोई रिकॉर्ड मौजूद है?

हमारे काल्पनिक मृत पत्रकार के उदाहरण से यहां हमें दो ज़रूरी बातें सीखने को मिलती हैं:

1. हम घटना के चश्मदीद के जितना करीब पहुंचते हैं, हमारी जानकारी उतनी ही ज़्यादा सटीक होती है।

2. खास किस्म की जानकारियां जुटाने और उनकी विश्वसनीयता साबित करने के लिए कुछ खास स्किल्स और ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है। अगर इस तरह की किसी जानकारी के बारे में आप पता लगाना चाहें तो इस क्षेत्र में अनुभवी और प्रशिक्षित लोगों की मदद लें।

ऊपर लिखी बातों को फ़ॉलो करने से आपका लेख तथ्यों के हिसाब से सटीक बन सकता है। जब भी आप कुछ लिखें तो खुद से सवाल करते रहें, ये आपको काफी हद तक ऐसी गलतियों से बचा सकता है। अगर आपको लगता है कि ये काफी ज़्यादा मेहनत का काम है तो ऐसी खबर को याद करें जिसकी वजह से आप किसी झूठे या गलत तथ्य पर यकीन कर लिया था।

हिंदी अनुवाद- सिद्धार्थ भट्ट।

अंग्रेज़ी में यह लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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