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NSUI के युवा नेता और DUSU के प्रेसिडेंट रॉकी तुसीर का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू

अरुण जेटली, विजय गोयल, अजय माकन, और राजीव गोस्वामी- ये कुछ ऐसे नाम हैं जो  DUSU यानि कि डेल्ही यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के उस समय में प्रेसिडेंट रहे जो देश के इतिहास का एक खास पड़ाव था। अब वो इमरजेंसी का वक्त रहा हो, इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद का समय रहा हो या फिर मंडल कमीशन का दौर रहा हो। DUSU का प्रयोग युवाओं ने ना केवल भारतीय राजनीति में एंट्री करने के लिए एक लॉन्चपैड की तरह किया बल्कि अपने-अपने समय के ज़रूरी मुद्दों को उठाने के लिए भी किया। DUSU के वर्तमान प्रेसिडेंट रॉकी तुसीर से इंडिया इंक ने बात की, पेश है इसी बातचीत के कुछ अंश-

1- DUSU के प्रेसिडेंट के रूप में आपको क्या लगता है कि स्टूडेंट यूनियन का रोल क्या है और क्या होना चाहिए? क्या आपको लगता है कि स्टूडेंट यूनियन को राष्ट्रीय मुद्दों पर स्टैंड लेना चाहिए? इससे मतलब है कि एक रचनात्मक तरीके से ना कि पिछले साल रामजस कॉलेज में हुए घटनाक्रम की तरह?

रॉकी: दिल्ली यूनिवर्सिटी में आज देश के हर कोने से आकर लोग पढ़ रहे हैं। हालांकि स्टूडेंट्स के आम मुद्दे छात्र राजनीति का केंद्र बने रहेंगे लेकिन आज हमारे लिए ये ज़रूरी है कि हम राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपनी आवाज़ उठाएं। ज़ाहिर सी बात है कि भविष्य के नेताओं में से कई दिल्ली यूनिवर्सिटी से भी निकलकर आएंगे, ऐसे में ज़रूरी है कि इन मुद्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के हम स्टूडेंट्स के सामने लेकर आएं ताकि इन पर एक रचनात्मक बहस की जा सके।

भारत के लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने वाले संस्थानों का खयाल रखा जाना ज़रूरी है, वर्तमान में हम इसी मुद्दे को उठा रहे हैं। मसलन अभी EVM (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) से छेड़छाड़ को लेकर काफी चर्चाएं हो रही हैं या फिर लोगों और छात्रों पर एक ही विचारधारा थोपने की कोशिश की जा रही है। पिछले 4 सालों से DU में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, यहां राजनीतिक विकल्पों को लेकर एक खास तरह की स्थिरता आ गई थी। इसलिए हमने ‘मेरी मर्ज़ी’ नाम से एक कैंपेन शुरू किया, जिसमें हमने स्टूडेंट्स को उनके अधिकारों और विकल्पों को समझने को बढ़ावा दिया। हम लड़कियों और लड़कों को एकसाथ लेकर आए ताकि जेंडर इक्वलिटी से जुड़े मुद्दों जैसे हॉस्टल टाइमिंग पर बात की जा सके।साथ ही हमने स्टूडेंट्स के सामने और मुद्दों को भी रखा जिससे वो खुलकर अपने दिल की बात कह सकें।

2- DUSU के के चुनावों में “कभी गुर्जर कभी जाट” की कहावत काफी फेमस है, क्या आप समझा सकते हैं कि DUSU चुनाव में कास्ट कैसे इतना खास रोल अदा करने लगी? क्या स्टूडेंट्स के सपोर्ट के लिए इन दोनों जातियों में से किसी एक से होना ज़रूरी है?

रॉकी: यहां चुनाव में कोई भी खड़ा हो सकता है, इसके लिए आपको किसी खास जाति का होना ज़रूरी नहीं है। मैं जाट समुदाय से हूं, लेकिन आप अगर देखें तो मेरे आलावा बाकी के चुने गए लोग इन दोनों (जाट और गुर्जर) में से किसी भी समुदाय से नहीं है। DUSU चुनावों में जाति नहीं बल्कि लीडरशिप सबसे बड़ा पैमाना है।

अगर किसी खास समुदाय की संख्या की बात करें तो हो सकता है कि कुछ कॉलेजों में किसी खास समुदाय के स्टूडेंट्स ज़्यादा हों, लेकिन मुझे फिर भी पूरा यकीन है कि DUSU चुनावों में यह ज़्यादा महत्व नहीं रखता। इससे अगर फर्क भी पड़ता है तो वो बेहद मामूली है। ये स्वाभाविक है कि जो स्टूडेंट्स राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं और बाकी के स्टूडेंट्स के लिए आवाज़ उठा रहे हैं, वो स्टूडेंट यूनियन के पदों पर बने रहते हैं और राजनीतिक पार्टियों का भी ध्यान खींचने में सफल हो पाते हैं।

3- दिल्ली यूनिवर्सिटी में NOTA भी एक अहम मुद्दा है, 50% से भी कम स्टूडेंट वोट करते हैं, क्या आपको लगता है कि ज़्यादातर स्टूडेंट्स, छात्र राजनीति से खुद को जोड़ नहीं पाते? इतनी कम वोटिंग का क्या कारण है?

रॉकी: दिल्ली यूनिवर्सिटी में करीब 2,50,000 स्टूडेंट्स पढ़ते हैं और चुनाव से पहले हमें इन तक पहुंचने के लिए केवल 5 दिन का समय मिलता है। इतने समय में सभी स्टूडेंट्स तक पहुंच पाना हमारे लिए काफी मुश्किल है और मुझे लगता है कि यह काफी कम समय है जो कि इसका एक बड़ा कारण हो सकता है। पिछले साल 36% वोटिंग हुई थी, इस साल आप देखें तो ये फिर भी बढ़कर 42.9% रही।

कम वोटिंग का एक और कारण टीचर्स का राजनीतिक रूप से सक्रिय होने के प्रति नकारात्मकता फैलाना भी है, खासतौर पर कॉलेजों के प्रिंसिपलों द्वारा। मैं जब अंडरग्रेजुएट स्टूडेंट था और राजनीतिक रूप से सक्रिय था तो मैंने खुद ये महसूस किया है। मेरे कॉलेज के प्रिंसिपल ने मेरे खिलाफ बिना किसी कारण के FIR दर्ज करवा दी थी, मामला कुछ यूं था कि कुछ लोग लड़ रहे थे जिससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। अब क्यूंकि मैं वहां मौजूद था और राजनीतिक रूप से सक्रिय भी था तो मेरे खिलाफ FIR दर्ज करवा दी गयी। इन वजहों से स्टूडेंट्स की राजनीति और एक्टिविज़्म में रूचि कम हो रही है, जिसका नतीजा कम वोटिंग के रूप में दिख रहा है।

मुझे लगता है कि एक तरह से लिंगदोह कमिशन की सिफारिशें भी स्टूडेंट एक्टिविज़्म में कमी के लिए ज़िम्मेदार हैं। जैसे पास होने के लिए 75% अटेंडेंस का ज़रूरी होना ही देख लीजिये। अगर स्टूडेंट अटेंडेंस के इस क्राइटेरिया को पूरा करने के सभी क्लासेज़ में रहेगा तो राजनीतिक रूप से सक्रिय रहने और बाकी के स्टूडेंट्स के लिए आवाज़ उठाने के लिए उसके पास समय कहां होगा।

4- क्यूंकि आप कॉंग्रेस के स्टूडेंट विंग NSUI से हैं, इसलिए हम जानना चाहेंगे कि आज के समय में पार्टी की स्थिति के बारे में आपका क्या सोचना है? 2014 में आई मोदी लहर के बाद राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी में वापसी की इच्छा बची भी है, खासकर कि ऐसे समय में जब पार्टी के युवा नेता आगे बढ़कर और अधिक जिम्मेदारियां ले रहे हैं?    

रॉकी: इस बड़े बदलाव का कारण स्टूडेंट्स ही हैं, ऐसा मेरा मानना है। ये वो युवा हैं जिन्हें वर्तमान सरकार ने विकास और रोज़गार के झूठे वादों से बेवकूफ बनाने की कोशिश की है। ये साबित हो चुका है कि 2014 में भाजपा को वोट देने वालों में एक बड़ा हिस्सा 18-25 साल की उम्र के युवाओं का था। राजनीति में ये जो एक नयी पीढ़ी उभरकर आ रही है ये बहुत महत्वपूर्ण है। मेरा निजी तौर पर मानना है कि एक तय उम्र के बाद उम्रदराज़ नेताओं को रिटायर हो जाना चाहिए ताकि युवा उनकी जगह लेकर देश के प्रति सफलतापूर्वक अपना फर्ज़ निभा सकें। निश्चित रूप से अनुभवी नेताओं को समाज की भलाई के लिए काम करते रहना चाहिए लेकिन उन्हें युवाओं को आगे बढ़ने के मौके देने की भी ज़रूरत है, ताकि देश के युवा ज़िम्मेदारी लें और बदलाव का हिस्सा बन सकें चाहे वो किसी भी पार्टी में हों।

राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने से निश्चित रूप से पार्टी में नई ऊर्जा का संचार होगा और यह पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं के लिए एक सकारात्मक बात है। कॉंग्रेस पार्टी स्तर पर भी लोकतंत्र को अपनाती है। पार्टी का कोई भी हिस्सा चाहे वो NSUI हो या फिर यूथ कॉंग्रेस, यहां सभी पदाधिकारियों को एक तय चुनावी प्रक्रिया से ही चुना जाता है और अगर राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बनते हैं तो वो भी इसी प्रक्रिया से चुने जाएंगे। मेरा मानना है, जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि इससे पार्टी के युवाओं को ज़बरदस्त उत्साह और उर्जा मिलेगी।

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