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अंधविश्वास पर रोक के लिए ज़रूरी है देश में एक केन्द्रीय कानून का होना

21वीं सदी के दूसरे दशक में आधुनिकता के तरफ बढ़ते समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी बिल्ली के रास्ता काटने, दूध के उबलकर गिरने या छींक आने पर कुछ सेकंड के लिए स्थिर हो जाता है। शुभ-अशुभ की धारणा हर समाज में बनी हुई है, जिसके कारण घर के बाहर हरी मिर्ची-नींबू या नज़रबट्ट (या नज़रौटा) या लोहे का नाल लगाना आम चलन है। हर तीसरा व्यक्ति चाहे वो शिक्षित हो या अनपढ़ इन आस्थाओं की गिरफ्त में है। इन मान्यताओं के प्रभाव को शिक्षित या अशिक्षित समाज में नहीं बांटा जा सकता है, क्योंकि सामाजिक परिवेश में यह समान रूप से हर मानव समुदाय पर हावी होती हैं। इनसे मुक्त होने की तमाम कोशिशों के बाद भी हम इनसे मुक्त नहीं हो पाते हैं।

सामाजिक जीवन में शुभ-अशुभ व्यवहारों/आचारों से जुड़े हुए तर्कों की कई व्याख्याएं हैं, जो आधारहीन अधिक हैं और वैज्ञानिक कम। अपनी आधारहीन व्याख्याओं के बाद भी यह समाज में समान्य रूप से स्वीकार्य हैं।

आस्थाओं की दुहाई की आड़ में समाज की प्रतिगामी ताकतों ने मानवीय गरिमाओं को कई बार तार-तार किया है और करती रहती हैं, विशेषकर कि महिलाओं की। शुभ-अशुभ की इन मान्यताओं का खमियाज़ा भारतीय समाज में महिलाओं को सबसे अधिक भुगतना पड़ा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुछ सालों पहले एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें भारत में 1987 से 2003 तक 25,000 महिलाओं को डायन या चुड़ैल कहकर मार देने की बात कही गई थी। इस तरह की हत्याओं के मामलों में झारखंड सबसे आगे है, दूसरे स्थान पर ओडिशा और तीसरे स्थान पर तमिलनाडु है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साल 2000 से 2012 तक 2097 महिलाओं की हत्या अंधविश्वास से प्रेरित होकर की गई। मीडिया के लिए यह सनसनी खबरों का हिस्सा भर है, लेकिन इन आंकड़े से स्पष्ट हो जाता है कि यह महिला सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ मामला है।

मौजूदा समय में इन मान्यताओं के संदर्भ में यह समझना अधिक ज़रूरी है कि सामाजिक जीवन में शुभ-अशुभ से जुड़ी धारणाओं में धर्म से अधिक भेदभावपूर्ण व्यवहार का प्रभाव सबसे अधिक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन सामाजिक-सांस्कृतिक कुरीतियों के साथ जाति और धर्म की राजनीति का इतिहास बहुत पुराना रहा है। औपनिवेशिक काल में भी तमाम प्रतिगामी संगठन अंधविश्वासों के विरुद्ध बन रहे कानूनों को धर्मविशेष का विरोधी करार दे देते थे, जबकि कानून का फोकस सभी धर्मों की अनैतिक प्रथाओं/आचारों पर होता था। अंधविश्वासी प्रथाओं/आचारों का विरोध धर्मविरोधी चरित्र के कारण नहीं बल्कि भेदभाव भरे व्यवहार के कारण होता है।

यह समझने की ज़रूरत है कि इन प्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष की लड़ाई को कानून के साथ-साथ लोगों की मानसिकता में बदलाव से ही जीता जा सकता है। लोगों की मानसिकता में बदलाव की नियति ही इन प्रथाओं के विरुद्ध खड़ी होकर कानून का इस्तेमाल ढाल के रूप में कर सकेगी। ज़ाहिर है कि कानून के साथ-साथ लोगों की मानसिकता में बदलाव के लिए भी मूलभूत कदम उठाया जाना ज़रूरी है।

भारतीय संविधान की धारा 51-ए, मानवीयता और वैज्ञानिक चितंन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात करती है। मसलन- बच्चों को काटें पर फेंकना या महिला को नग्न करके घुमाना, धारा 307 और 354-बी के तहत अपराध है, लेकिन यह अधिक प्रभावी रूप से सक्रिय नहीं है। हर राज्य अपनी कानूनव्यवस्था को बनाए रखने के लिए आईपीसी में संशोधन करने के लिए स्वतंत्र है, ताकि वह अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा कर सके। इन्हीं प्रयासों के तहत कर्नाटक सरकार ने पिछले दिनों ऐतिहासिक अंधविश्वास विरोधी बिल- प्रिवेंशन एंड इरेडिकेशन आफ इनह्यूमन इविल प्रक्टिसेस एंड ब्लैक मैजिक एक्ट 2017 (अमानवीय प्रथाओं और काला जादू पर रोक और उनकी समाप्ति के लिए विधेयक) को पास किया है।

प्रस्तावित कानून में माता, ओखली और मानवबली जैसी परंपराएं जिनमें जान जाने का डर हो, को प्रतिबंधित किया गया है। अंधविश्वासी बातों को फैलाना, आग पर चलने के लिए मजबूर करना, मुंह से लोहे की सलाखें निकालना, काला जादू के नाम पर पत्थर फेंकना, सांप या बिच्छू के काटने से घायल व्यक्ति को चिकित्सकीय सहायता न देकर जादुई इलाज करवाना, धार्मिक रस्म के नाम पर किसी को निर्वस्त्र करना, भूत के विचार को बढ़ावा देना, चमत्कार का दावा करना और खुद को घायल करने के विचार को बढ़ावा देना आदि को इस बिल के तहत अपराध की श्रेणी में रखा गया है। अंधविश्वासों के लिए महिलाओं और बच्चों के उपयोग को कड़े अपराध की श्रेणी में रखा गया है।

इससे पहले महाराष्ट्र सरकार ने भी इस तरह के प्रयास किए हैं, पर ज़रूरी है कि इस दिशा में पूरे देश में एक केंद्रीय कानून बने। महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार का अंधविश्वास विरोधी बिल जाति और जेंडर आधारित अपमानजन व्यवहारों पर सवाल उठाता है, हालांकि इस तरह के बिल के मानवीय प्रावधान समस्या के निवारण में इसके मूल कारण से भटक जाते हैं।

कानून के तहत सज़ा का प्रावधान समस्या की फौरी राहत की तरह ही है जो समस्या के मूल पर कोई चोट नहीं कर पाता है। फिर भी कई तरह के परंपरागत व्यवहारों/आचारों पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कानून ज़रूरी हैं, ताकि आस्था के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनने से बचाया जा सके और समाज को वैज्ञानिक दिशा की तरफ प्रेरित किया जा सके।

महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार के मौजूदा बिल को इस दिशा में मील का पत्थर माना जा सकता है, हालांकि इस बिल में कई तरह की उलझने हैं जिन्हें दूर किया जाना ज़रूरी है। अपने अंदर की तमाम विसंगतियों के बावजूद इस तथ्य को रेखांकित करना ज़रूरी है कि मौजूदा बिल भी सही दिशा में उठाया गए महत्वपूर्ण कदम हैं। मौजूदा बिल की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय स्तर पर ऐसा माहौल बनाए जाने की ज़रूरत है जिससे जाति और जेंडर आधारित भेदभाव को कम या खत्म किया जा सके। गरीब, वंचित और महिलाओं को आस्था के नाम पर अमानवीय शोषण से बचाने के लिए ज़रूरी है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक के बाद पूरे देश में अंधश्रद्धा के विरोध में एक केंद्रीय कानून बने, जो जातिगत और जेंडर आधारित भेदभाव को खत्म करने में एक नई शुरुआत साबित हो सके।

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