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बंटवारे को समझना हो तो देखिये शॉर्टफिल्म ‘मुबादला’

फिल्मफेयर शॉर्ट फिल्म अवार्ड्स 2018 के लिए नामांकित फिल्मों में से युवा लेखक-निर्देशक फहीम इर्शाद की ‘मुबादला’ देखी। इस बार मेरा सामना बंटवारे के बैकड्रॉप पर बनी एक उम्दा फिल्म से था। इस बात से सभी इत्तेफाक रखते होंगे कि मुल्क का बंटवारा एक त्रासदी थी। यह केवल दो मुल्कों का बंटवारा नहीं था बल्कि रिश्तों का बंटवारा भी था। सियासतदानों ने एक लकीर खींच दी, उन्हें दिलों के हालात से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन आम लोगों के लिए यह एक बड़ा दर्द था। ज़मीनें, कारोबार, साज़-ओ-सामान बंट गए। जो कभी एक हुआ करते थे, दो कर दिए गए। देश के बंटवारे को 70 साल हो गए है। लेकिन उस दौर को जीने वाले लोगों के दिलों में उसका दर्द आज भी ज़िंदा है।

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बंटवारा या विभाजन किसी देश, ज़मीन या सीमा का नहीं होता। वो तो लोगों की भावनाओं का होता है जो हमेशा के लिए उनको गहरे ज़ख्म दे जाता है। वह रोज़मर्रा की जिंदगी को पलट कर रख देता है, उसके फैसले की गूंज ताउम्र सुनाई देती है। बंटवारे का असर सबसे पहले आम आदमी पर ही होता है। लोग अपनों से बिछड़ जाते हैं, घर, ज़मीन, दोस्त, रिश्तेदार, यहां तक की एक ही मां-बाप की दो संताने बिछड़ जाती हैं। देश का बंटवारा आज भी एक रहस्य का विषय है, बहुत कुछ जानने के बाद भी कुछ छूटा सा महसूस होता है।

इस फिल्म में आप बंटवारे के एक अछूते पहलू से रूबरू होंगे, इसकी कहानी को आप कई नज़रियों से समझ सकते हैं। बंटवारे को छोड़कर पांच अन्य पात्रों के इर्द-गिर्द यह कहानी बुनी गई है। दो मर्द, एक लड़की, एक किशोर और एक साइकिल और इन सबको एक सांचे में रखकर ढाली गयी है ‘मुबादला’ की कहानी। मुबादला के लफ्ज़ी मायने (शाब्दिक अर्थ) अदला-बदली होते हैं। फिल्म में आलम और इकबाल के बीच एक अलग किस्म का एक्सचेंज दिखाया गया है, जो सतही तौर पर भले ही दिलचस्प लगे लेकिन हकीकत में बड़े अफसोस का मंज़र था।

फिल्म का समापन इसी मुबादले पर होता है। औरत और सामान का मुबादला। एक ज़िंदा इंसान और साइकिल की अदला-बदली, इसके मायने- इंसानों का चीज़ों में तब्दील हो जाना। फिल्म यह रेखांकित करती है कि बंटवारे सहूलियत के नाम पर होते हैं। देश का बंटवारा भी ऐसी ही सहूलियत का बंटवारा था।

पंद्रह मिनट के लिहाज़ से मुबादला एक ऐसा विषय सामने लेकर आई है जिस पर इतने कम अंतराल में फिल्म बनाना चुनौती ही माना जाएगा। इस नज़रिए से फहीम खान की यह कोशिश कसौटी पर खरी उतरती है। फिल्म की कहानी इसका मजबूत पहलू है जिसे बैकग्राउंड म्यूज़िक का चयन और सुंदर बना देता है। परिस्थिति के अनुकूल क्लासिकल वाद्य यंत्रों और गायकी का इस्तेमाल कहानी को बांधे रखता है। कहानी के नज़रिए से लोकेशन अच्छी है और कहानी की टाईमलाइन दिलचस्पी कायम करती है।

शैलेन्द्र साहू का छायांकन सुंदर बन पड़ा है। कलाकारों का अभिनय एवं संवाद अदायगी बढ़िया है। फारुख सेयर, इकबाल और प्रियंका वर्मा अपने-अपने किरदारों में फिट नज़र आए हैं। किशोर मन और वयस्कों की दुनिया का संघर्ष कहानी को सामाजिक पहलू देता है।

किशोर शोएब, इकबाल और आलम की चिंताओं में कोई मेल नहीं। आलम में हिजरत (देश छोड़ने) की चाह है, जबकि बालक शोएब मुल्क छोड़ कहीं जाना नहीं चाहता। शरीयत का हवाला देते हुए वो अदला-बदली से बड़ों को रोकता भी है, लेकिन उसकी बातें हंसी में उड़ा दी जाती हैं।

वैसे भी बड़े बच्चों के मशविरे को कहां गंभीरता से लेते हैं। विडम्बना देखें कि ऐसे भी अच्छी बातें नज़रअंदाज ही हो जाती हैं। फहीम इर्शाद की ‘मुबादला’ ऐसी ही दिलचस्प परतें खोलती है जो इसे जियो फिल्मफेयर शार्ट फिल्म कॉम्पीटिशन में एक मज़बूत दावेदार के रूप में पेश करती है।

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