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“मेरी जाति की वजह से मेरे ब्राह्मण दोस्त मुझसे झाड़ू लगवाते थे”

Castism in india

Castism in india

यह लेख लिखना मतलब अपने ही हाथों से अपने घावों को कुरेदना। फिर भी मैं लिखूंगा, क्योंकि यह सबसे मुफीद वक्त है अपनी बातें कह जाने का, आसान है आजकल कहना और सुनना। बहुत सारी बातें हैं, तब की, जब दुनिया ने दिखाना शुरू ही किया था और अब की भी जब दुनिया ने बहुत कुछ दिखा दिया। याद सिर्फ वो हैं, जिन्होंने सबसे ज़्यादा घाव किया।

एक 5 साल के बच्चे से अगर कोई कहे, “हे! हमका ना छुए रे!” तो, आपके हिसाब से वह क्या समझेगा? आपका नहीं पता पर मैंने समझा कि शायद ‘पंडिताइन’ (लोग उन्हें इसी नाम से बुलाते थे) जो छूने से मना कर रही है, “गूं बूड़ गयी है” (टट्टी पर पैर रख दिया है) क्योंकि मम्मी मुझे छूने से तभी मना करती थी, जब वह ‘गूं बूड़ी’ होती थी (खेत में शौच जाने की वजह से)।

‘बचपन’ बड़ा मज़बूत होता है, किले जैसा, किसी भी बाहरी हमले का कोई असर नहीं होता है। फिर समाज बाहर से और परिवार भीतर से इसे तोड़ना शुरू करता है और किला ढह जाता है। मुझे तब भी कुछ समझ नहीं, आया जब मैं ‘पासी’ जाति में रखे व्यक्ति (जाति का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि पासी जाति में रखे गए लोग भी छुआछूत के शिकार हैं) के घर ‘कथा’ की पंजीरी के लालच में गया, उसने “दत्त -दत्त” (संजय दत्त वाला दत्त नहीं) करके मुझे दौड़ा लिया, मैं कहता रहा कि मैं नहाकर आया हूं फिर भी वह नहीं माना।

थोड़ा बड़ा हुआ तो लड़कों ने मेरा टाइटल ‘हेला’ से बिगाड़ कर ‘हेलवा’ और फिर ‘हेलामार्निंग’ (ये शायद ‘हेमा मालिनी’ से प्रभावित था) कर दिया, बात ज़्यादा बढ़ने पर वो ‘भंगीवा’ भी बोल देते थे, मैं भी बदले में ‘पटेलवा’ या ‘कुनबीवा’ बोल देता था। मुझे समझ नहीं आता था कि ये लोग मेरा ही टाइटल क्यों बिगाड़ रहे हैं। यही वह समय था, जब मैंने छुआछूत की तपिश पहली बार पास से महसूस की, वे मेरे घर में तो आते थे पर अपने घर में नहीं घुसने देते थे, दूध, माठा, दही मेरे बर्तन में पलट देते थे पर छुवाते नहीं थे।

वो यहीं पर नहीं रुके, गाँव की हर सार्वजनिक जगह जैसे खेत, खलिहान, बगिया, दुआर, ट्यूब-वेल पर आये दिन बेवजह झगड़ा और मारपीट करने लगे। यह मुकाबला 1 vs all होता था, वे चप्पल मारकर ट्यूब-वेल से बाहर निकाल देते, शौच करते समय ढेला मारकर डिब्बे का पानी गिरा देते और ‘कैप्टेन व्योम’ देखते समय बिजली काट देते थे। हमने कई बार दूसरी जगह किराये का कमरा लेने के बारे में सोचा लेकिन महंगा होने के कारण हमें उसी टोले में जूझना पड़ा।

ज़िन्दगी की शुरुआती 10-12 साल ऐसे ही माहौल में काटने के बाद हम शहर आ गए। शहर में लोग सभ्य होते हैं, इसलिए प्यार से पूछते हैं, “आप पूरा नाम क्या लिखते हैं?” जाति प्रमाण पत्र वाला पूरा नाम बताने पर लोग जवाब देते हैं” कमरा तो खाली था पर अभी कल ही उठा दिया “20 में से कम-से-कम 15 घरों से यही जवाब आया। महीने भर ढूंढने पर 2 फीट की गली में 10X10 का कमरा, ठीक है! बहुत से परिवार 10X10 के कमरे में रह रहे हैं।

लेकिन छुआछूत बदल कर यहां भेद-भाव हो गया है, मकान मालिक का लड़का वीसीआर लगाएगा तो सिर्फ मुझे नहीं देखने देगा, भगाएगा और ना मानने पर थप्पड़ से मारेगा और मकान मालिक यहां चमार जाति में रखा गया व्यक्ति है (जाति का उल्लेख इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि भेदभाव करने वाला यहां मेरी ही तरह SC यानी अनुसूचित जाती में रखा गया व्यक्ति है)।

गॉंव, मोहल्ले से बाहर के public place यानी सड़क, बाज़ार, दुकान, बस, ट्रेन, पार्क, सिनेमा, कॉलेज आदि पर लोग कद-काठी, चेहरे, रंग, कपड़ों आदि से अंदाज़ा लगा लेते हैं। दुकानदार अच्छा सामान नहीं देता, बद्तमीज़ी से पेश आता है, सड़क और कॉलेज के गुंडे जाति, पहुंच और पैसे के नशे में सिर्फ हमसे गुंडई करते हैं (दोस्त, समाज और परिवार सहयोग नहीं करते हैं, हमें ही गलत ठहराते हैं और डरने को कहते हैं)।

ये सब बुरा तो लगता है पर सबसे बुरा तब लगता है, जब आपके साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, सुख-दुख में खड़े होने वाले, आपसे ‘भावनाओं’ का रिश्ता रखने वाले सामान्य वर्ग में रखे गए ‘दोस्त’ अपने अंदर का जातिवाद खत्म नहीं कर पाते। यह मेरे लिए गले में फंसी हड्डी जैसा अनुभव साबित होता है, ना निगलते बनता है ना उगलते। बुरा लगता है जब ब्राह्मण वर्ग में रखे गए ‘दोस्त’ बड़े प्यार से अपने घर बुलाते हैं और नाश्ता-पानी फाइबर के दोने और गिलास में कराते हैं, बुरा लगता है जब ब्राह्मण वर्ग में रखे गए दोस्त जाति पूछने के बाद साथ टिफिन करना बंद कर देते हैं, बुरा लगता है जब ब्राह्मण वर्ग में रखे गए दोस्त ये कहते हैं, “तुम झाड़ू लगा लो खाना मैं बना लूंगा”।

बुरा लगता है, जब गुप्ता वर्ग में रखे गए दोस्त शादी में खाने की मेज़ से उठा देता है, क्योंकि उस पांत में सब सवर्ण बैठे हैं। बुरा लगता है जब ब्राह्मण, श्रीवास्तव और ठाकुर वर्ग में रखे गए दोस्त यह कहते हैं, “हमें तो मेहनत करनी पड़ती हैं, तुम्हें क्या? तुम तो कोटे से हो” और “आरक्षण की वजह से डॉक्टर बनने वाले पेट में कैची और तौलिया छोड़ते हैं।” बुरा लगता है जब यही दोस्त ‘चमार’, ‘पासी’ और ‘भंगी’ जैसे शब्दों को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं।

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