“ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी”
महशूर गज़ल गायक जगजीत सिंह की ये गज़ल बचपन की यादों को ताज़ा कर देती है। लेकिन जगजीत सिंह की इस गज़ल से मेरे मन मे एक सवाल भी उठता है और वो सवाल मेरे मन में एक उलझन भी पैदा करता है। क्या सभी के लिए उनके बचपन के पल इतने ही अच्छे है जैसा इस गज़ल में लिखा गया है? ये सवाल मेरे मन में इसलिए उठता है क्योंकि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की 2007 की एक रिसर्च के अनुसार हमारे देश में 53% बच्चे चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज़ (बाल यौन शोषण) का शिकार हो चुके हैं। यानि कि हर दो में से एक बच्चा बाल यौन शोषण का शिकार हो रहा है।
आज पूरी दुनिया के लिए बाल यौन शोषण एक माहमारी बनता जा रहा है। दुनिया में यौन शोषण के शिकार हुए बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। इतना सब होने पर भी इस मुद्दे को इतनी गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है।
आज भी हमारे समाज में बाल यौन शोषण को लेकर बहुत सारी गलतफमियां है जिन पर बातचीत करना बहुत ज़रूरी है। लोगों की धारणा है कि बाल यौन शोषण हमारे परिवार या समाज में नहीं होता, कहीं दूसरे ही समाज मे होता है। इतना ही नहीं कई लोगों का तो ये भी मानना है कि ऐसी घटनाएं तो सिर्फ गांव मे रहने वाले अनपढ़-गरीब लोगों के घरों में ही होती हैं। अमीर और शहरों में रहने वाले लोगों के साथ ऐसी घटनाएं नहीं होती।
बाल यौन शोषण की जब बात होती है तो लोगों के ज़हन में अधिकतर लड़कियों के साथ होने वाली घटनाएं ही आती हैं। लड़कों का यौन शोषण हो सकता है, इसके बारे में कम ही लोग विचार कर पाते हैं। यह एक सच्चाई है कि शहर, गांव, अमीर, गरीब, अनपढ़ और पढ़े-लिखे हर किसी के साथ बाल यौन शोषण के कड़वे अनुभव जुड़े हो सकते हैं। ऐसे आपराधिक मामलों में से ज़्यादातर में परिवार की जान-पहचान के लोग शामिल होते हैं, जो परिवार के लिए भरोसेमंद होते हैं।
संस्कृति, शर्म और इज्जत की आड़ में ऐसी आपराधिक घटनाओं पर समाज में पर्दा डाल दिया जाता है और मौन धारण कर लिया जाता है। परिवारों में ऐसा कोई माहौल ही नहीं है, जहां कोई बच्चा इसके बारे में किसी के साथ बात कर सके। अगर कोई बच्चा बात भी करता है तो अधिकांश मामलों में उसे चुप करा दिया जाता है। इस तरह से ऐसी घटनाएं घर की चार दीवारों में ही दब कर रह जाती है। लड़कों के साथ हुए यौन शोषण को इसलिए भी दबा दिया जाता है कि कहीं लड़के की मर्दानगी पर ही सवाल ना उठा दिया जाए। यही कारण है कि बाल यौन शोषण जैसी आपराधिक घटनाओं पर रोक लगाना मुश्किल होता जा रहा है।
पॉक्सो यानि प्रिवेंशन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस यानि यौन उत्पीड़न से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012, बच्चों के साथ यौन समबन्ध बनाना या बनाने की कोशिश करने को यौन अपराध मानकर सजा की बात करता है। 18 साल से कम उम्र के बच्चों से किसी भी तरह का यौन व्यवहार इस कानून के दायरे में आता है। यह कानून लड़के और लड़की को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करता है। कानून के तहत बच्चों के साथ यौन अपराध को रोकने की ज़िम्मेदारी प्रत्येक नागरिक है। फिर भी बाल यौन अपराध से जुड़े बहुत से मामले रजिस्टर ही नहीं हो पाते।
इस मुद्दे पर हमें उपचार और रोकथाम दोनों ही पहलुओं पर सोच-समझकर काम करने की ज़रूरत है। उपचार और रोकथाम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर हम उपचार की बात करें तो बहुत ज़रूरी है कि यौन शोषण का सामना कर चुके बच्चे को इस ट्रॉमा से निकाला जाए। यौन शोषण का बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों से बातचीत करके उन्हें विश्वास दिलाना बहुत ज़रूरी है कि इसमें उनकी गलती नहीं थी।
बच्चे के काउंसलिंग सेशन सही से होना बहुत ज़रूरी है ताकि उसके मानसिक तनाव को दूर किया जा सके। बच्चे को इस ट्रॉमा से निकालने में मीडिया, डॉक्टर, पुलिस और परिवार सबकी अहम भूमिका है।
ऐसा किसी भी बच्चे के साथ ना हो इसलिए बाल यौन शोषण की रोकथाम के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि हम इस मुद्दे पर चुप्पी तोड़कर बच्चों के साथ बातचीत का माहौल तैयार करें। सबसे पहले बच्चों को उनके शारीरिक अंगों की जानकारी देते हुए ये बताना ज़रूरी है कि कौन से प्राइवेट पार्ट हैं। इसके साथ-साथ उन्हें सुरक्षित और असुरक्षित टच के बारे में जानकारी देना भी बहुत ज़रूरी है। स्कूलों में भी इस मुद्दे को लेकर वर्कशॉप और सेमिनारों का आयोजन समय-समय पर करवाना चाहिए। किसी भी कानून की सार्थकता तभी है जब हर नागरिक उस कानून को सही रूप से लागू करने में अपनी भूमिका निभाएं।
किसी भी देश का विकास और प्रगति इस बात पर निर्भर है कि उस देश के बच्चों का कैसा विकास हो रहा है। अगर हम अपने देश का विकास चाहते हैं तो हम सभी को बाल यौन शोषण पर चुप्पी तोड़नी होगी, तभी हम हर बच्चे के बचपन को सुरक्षित और सुंदर बना सकते है।