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हवा हूं हवा, मैं दिल्ली की हवा हूं

हिन्दी के मशहूर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी है जिसका शीर्षक है ‘बसंती हवा’। उस कविता में हवा कहती है, “हवा हूं हवा, मैं बसंती हवा हूं।” भारत में बसंत ऋतु की हवा को सबसे अच्छी, मादक और मस्त हवा माना जाता है। बसंत का दूसरा नाम ऋतुराज भी है पर एक अन्य ऋतु है, शरद ऋतु यानि ठण्ड का मौसम। इस ऋतु का महत्व भी बसंत से कम नहीं है। अपने पुराने ऋषि-मुनि कहा करते थे कि कर्म करते हुए सौ ‘शरदों’ तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए, यानी शरद उनके लिए बसंत से भी अच्छा था।

उस ज़माने में शरद का मान बसंत से कहीं अधिक रहा होगा या कम से कम ऋषि-मुनि जैसे सादगी से जीने वाले लोगों के लिए यह ऋतु अधिक सुखकर रही होगी। कहां बसंत की रंगीनियां, मस्ती और मादकता और कहां तपस्या से शुभ्र, निरभ्र और दीपित व्यक्तित्व। इनका कहां कोई मेल है? शायद इसलिए उन्होने बसंत की जगह शरद को चुना। शरद का मिजाज़ भी उन्हीं की तरह शांत सौम्य लेकिन दीप्त है। खुला आसमान, खिली धूप और सुबह-शाम की हवा में हलकी खुनकी। शरीर को निरोगी बनाने वाली और मन को निष्पाप सुंदरता से भर देने वाली, तपस्वी की तरह ही खुली, सुंदर, सुरुचि सम्पन्न लेकिन बिना लाग-लपेट, तड़क-भड़क के भी मन मोह लेने वाली शरद ऋतु।

शरद ऋतु की रातें भी स्वच्छ और सुंदर होती हैं। तारों से भरी-पूरी जगमग चांदनी रात, इतनी स्वच्छ और सफेद कि तुलना में कोई भी सफेद चीज फीकी लगे। तभी तो भारतीय लोकमान ने इन रातों में अमृत वर्षा की कल्पना कर ली। दशहरा, दिवाली ही नहीं, शरद पूर्णिमा का भी अपना महत्व है। शरद पूर्णिमा यानी अमृत की रात। लोग मानते हैं कि इस रात चंद्रमा की रौशनी में अमृत की बूंदे बरसती हैं। इसलिए एक बर्तन में खुले आसमान के नीचे खीर रखने का चलन है हमारे देश में। ऐसा मानते हैं कि इसे खाकर हमारा तन-मन तृप्त हो जाता है। यही नहीं यह देवताओं की दीवाली का दिन भी है। इस रात महादेव की नगरी काशी में गंगा घाट पर जगमागाते दिए आसमान के तारों को चुनौती देते हैं। उनकी रौशनी में डूबे हुए गंगा के घाट सचमुच स्वर्गीय आभा देते हैं। इन्ही कारणों से शरद का हमारे देश में खास महत्व रहा है।

लेकिन पिछले कुछ सालों से दिल्ली में रहते हुए मैंने यह महसूस किया कि यहां शरद का सौंदर्य दुर्लभ है। शहर की चकाचौंध में गुम तारे और प्रकाश के वृत्त की परिधि को तोड़ने में असफल रहने वाले चांद के कारण नहीं, बल्कि धुंध की एक गहरी मोटी परत के कारण जिसे भेदना उनके लिए काफी मुश्किल है।

दिल्ली अमृतसर हाइवे के पास बसे गांधी विहार मोहल्ले में 10 सालों तक रहना हुआ। अन्य कॉलोनियों की तुलना में यह अधिक खुला था। उसके पीछे धीरपुर प्रोजेक्ट की खुली ज़मीन थी। कॉलोनी के बाहरी छोर पर एक मकान की बरसाती अपनी रिहाइश थी, जहां खड़े होकर अक्सर हम सामने की सड़क की ओर देखते और पाते कि रात में नहीं बल्कि दिन में ही यह सड़क घनी धुंध से घिरी दिखती। शहर के दूसरे हिस्सों में बिल्डिंगों और भीड़भाड़ के बीच इस धुंध का असर शायद थोड़ा कम रहा हो, लेकिन यहां हवा की सतह पर बैठी धुंध परत-दर-परत हमारी आंखों के छेंके रहती।

आजकल जब मीडिया ने इस धुंध को नोटिस किया तो पूरे दिल्ली में इसे पर्यावरणीय आपदा की तरह महसूस किया गया और इसकी छाप पूरे उत्तर भारत में महसूस की गई। आज मुझे अपने मित्र का तब का एक कथन बार-बार याद आ रहा है, “भाई यह शहर एक दिन धुंध में खो जाएगा।” मेरा मन इसमें आगे जोड़ देता- कि शायद ये शहर भारत का नया मोहनजोदाड़ो होगा, यानी मृतकों का टीला। पहले से ज़्यादा भयावह, ज़्यादा समृद्ध, ऐतिहासिक कबाड़ वाला शहर। हम इसके साक्षी होंगे या शायद भुक्तभोगी। फिर मन सिहर जाता है और आगे सोचने की हिम्मत ही नहीं होती।

यह वो मौसम तो नहीं है जिसकी चांदनी, जिसका आकाश और जिसकी साफ हवा हमारे पूर्वजों को इतना प्रिय थी। ये वो आबो-हवा नहीं है जिसमें टप-टप गिरती हुई अमृत की बूंदों ने मध्यएशिया या शायद उससे भी दूर पश्चिम से उठे हुए कदमों को सदियों के लिए यहां रोक दिया था। इस ज़हरीली हवा में आज हमारे कदम उखड़ जाना चाहते हैं, हमारे प्राण, हमारी सांसे, हमारा जीवन सब उखड़कर मिट जाने को बाध्य है। शायद हमने इस धुंध के आगे घुटने टेक दिए हैं और हम इस ज़हरीली हवा को अपने फेफड़ों में उतारने के लिए विवश हैं।

इधर मीडिया ने कारणों के अंबार लगा दिए हैं। किसी ने पटाखों की बात की तो किसी ने पुआल की और किसी ने भलस्वा के कचरे के पहाड़ में लगने वाली आग की। पर ये सब तत्कालिक कारण हैं, वास्तविक नहीं। सच तो यह है कि हमारी हवा ज़हरीली गैसों से सेचुरेटेड हो गई है, यह और अधिक ज़हर नहीं ढो सकती है। अपने में घुला-मिला लेने की उसकी क्षमता जवाब दे गई है। वह हमारी करतूतों के कालेपन को अब अधिक नहीं छिपा सकती, इसलिए यह हमारे सामने उस कालिमा का पर्दा डालकर हमें आगाह कर रही है।

यह धुआं न पुआल का धुआं है और न पटाखों का। यह उन गाड़ियों से निकला है जिस पर चढ़कर इठलाते हुए हम खुद को दुनिया का शहंशाह समझते हैं। दुर्भाग्यवश दिल्ली में इन शहंशाहों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। यह हवाई ज़हर हमारी औद्योगिक इकाइयों द्वारा हवा में छोड़ा गया अपशिष्ट है, जो दिल्ली के बाहरी इलाकों और एनसीआर के कारखानों से निकलकर हवा की डाक से दिल्ली आता है।

लेकिन हम इन पर सवाल नहीं उठा सकते। शहंशाहों पर भला कोई सवाल उठा सका है अब तक? फिर, उन गाड़ियों और फैक्ट्रियों वाले शाहंशाहों की बात ही क्यों की जाय? क्यों न उन किसानों की बात की जाय जो अपने खेतों में पुआल जला रहे हैं। वे किसान जिनकी लागत उनकी उत्पादन कीमत के आसपास है। अपने खेतों को मशीनों से कटवाना जिनकी विवशता है क्योंकि महंगाई और मनरेगा के इस दौर में मानवीय श्रम का खर्च वे नहीं उठा सकते।

एक बार फसल की कटाई के बाद पुआल को फिर से कटवाना उनके लिए अलाभकर और खर्चीला काम होता है, इसलिए उसे जलाना आसान है। बेशक किसानों को इससे बचने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन ये जो शहंशाह हैं, जिनकी फैक्ट्रियां हैं, गाडियां हैं, वे इस पर शोध के लिए खर्च क्यों नहीं करते कि पर्यावरण कि क्षति को कैसे कम किया जाए? कैसे औद्योगिक अपशिष्ट को कम किया जाए? क्या उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? केवल किसान की भूमिका को ही बढ़ा-चढ़ा कर क्यूं पेश किया जाता है? क्या लोगों को गाड़ियों की संख्या बढ़ाने से हतोत्साहित नहीं किया जा सकता? क्या सरकार और पूंजीपतियों की सम्मिलित भूमिका और ज़िम्मेदारी की बात नहीं की जा सकती? अगर नहीं, तो ज़ाहिर है कि बसंती हवा की तरह ही शरदीय हवा भी कहने लगेगी “हवा हूं हवा, मैं जहरीली हवा हूँ।”

 

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