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त्रियूंड ट्रेक, और धर्मशाला ट्रिप का असली मज़ा तो पैदल ही है

कहीं घूमने निकलो तो फिज़ूल की दिक्कतें घर की खूंटी पर और बस पर चढ़ते ही आंखें खिड़की के शीशे पर टांग दो तो अच्छा है। हवाओं का कोई रंग नहीं होता, सिर्फ एक एहसास होता है उनकी मौजूदगी का जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। ऐसे ही किसी हवा के झोंकों की तलाश में उस दिन कहीं निकलने का प्लान बना जो अंदर तक बस झकझोर दे। अगले दिन बर्थडे था और इस बार पहले से ही प्लान था कि शहर के शोर से दूर इस बार कुछ और दूर जाना है। इसलिए एक रात पहले बस निकल लिए। दिल्ली से हिमाचल और पंजाब की तरफ जाने वाली ज्यादातर बस कश्मीरी गेट ISBT से ही निकलती हैं, इसलिए रास्ता भी उधर से था और मंजिल भी वहीं।

तक़रीबन आधी रात में इस सफर की शुरुआत की तो दिल्ली में मौसम फिर भी सही था, लेकिन आगे बढ़ते के साथ ठण्ड बढ़ती गई। आगे चलकर, हमारी बस एक अंजान ढाबे पर कहीं रुकी, उतरकर चाय की एक छोटी खुराक लेना ज़रूरी समझा। बाहर की करारी ठण्ड से अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि आगे का मौसम कैसा होने वाला है। अंदर चाय का जो शौक पल रहा था, बाहर आकर वो ज़रूरत में तब्दील हो गया।

रात के अंधेरे और शायद नेशनल हाईवे होने की वजह से काफी ज़्यादा सन्नाटा था। वो सन्नाटा जिसमें रात के अंधेरे में गिरती ओंस की बूंदों को महसूस करने के साथ आसानी से सुना भी जा सकता था। इसी बीच नज़र सामने खड़ी एक कार की छत पर गिरी ओंस पर पड़ी, जो सामने लगे खम्बे की लाइट में बिलकुल मोतियों की तरह से दूर से ही चमक रही थी।

चाय की चुस्की ले ही चुके थे बावजूद इसके बस में लगने वाले मद्धम झूलन ने सोने को मजबूर कर दिया। सुबह जब आंख खुली तो हम ज़्यादातर रास्ता पूरा कर चुके थे, आगे करीब 50 किलोमीटर का ही रास्ता बचा था, सूरज निकल चुका था और रास्ता भी साफ था।

सफर के आखिर में हमारी बस को उसका स्टॉप मिला और हमें हमारा। बस से उतरते ही आस-पास जो कुछ भी दिखा उसे जी भर के देखा, क्योंकि वहां बहुत कुछ अलग था और बहुत कुछ नया, मुझे लगता है ये अच्छी चीज़ है। अगर आप कहीं घूमने जाएं तो एक बार अपने सफर को शुरू करने से पहले उस जगह को खुली आंखो से मन भर देख लेना चाहिए। एक अनोखी उर्जा मिलती जो सफर भर आपके साथ रहती है।

बस स्टॉप पर चाय और नाश्ते के बाद फिर आगे की तैयारी हुई, धर्मशाला से मैक्लोडगंज की दूरी करीब 10 KM की है, जहां जाने के लिए धर्मशाला से ही थोड़ी-थोड़ी देर में बस मिलती है। सफर के दौरान रास्ते में पड़ने वाले ढेरों कांटेदार पेड़ हिल स्टेशन का भरपूर फील देंगे। हर टूरिस्ट प्लेस की तरह स्टॉप पर पहुंचने के बाद होटल और हॉस्टल रेंट पर देने वालों की भीड़ लगना यहां भी आम है। अगर पहले से कोई बुकिंग नहीं की हो तो मैक्लोडगंज में ही तमाम होटल 500 से 1500 तक आराम से मिल जाएगें जहां की बालकनी में बैठकर आराम से पहाड़ों की ऊंचाइयों का दीदार किया जा सकता है। अलग-अलग रंगों में रंगे सभी घर दूर पहाड़ों की ऊंचाई पर बेहद खूबसूरत नज़र आते हैं।

कई जगह कहा और लिखा गया है कि इस शहर को पैदल या बाइक पर ही घूमना ही सही है। बाइक और स्कूटी यहां दुकानों पर आसानी से किराए पर मिल जाती है। लेकिन आप घूमने फिरने के शौकीन हैं और समय निकाल के यहां आए हैं तो इस खूबसूरत शहर को पैरों से नाप लेना ही अच्छा है।

हम पहले से ही तय कर चुके थे कि ट्रेकिंग कर रात तारों के रौशनी में गुज़ारनी है। सफर शुरू करने से पहले लगा कुछ खाना बेहतर होगा। उत्तराखंड हो या हिमाचल, पहाड़ों में खाने का जायका ही दूसरा होता है। मैक्लोडगंज की मेन मार्केट में खाने की ढेरों चीज़े आसानी से मिल जाएंगी, मोमोज़ के छोटे-छोटे काउंटर तो आपको हर दस कदम पर मिल जाएंगे। इसके आलावा चिकन के शौकीन हैं तो यहां किसी रेस्त्रां में रुककर उसका भी स्वाद लिया जा सकता है। ज़्यादा पानी और कम मसाले में बने इस चिकन में पड़ी एक एक सब्जी के रंग को थाली में घुस कर आंखों से बखूबी टटोला जा सकता है।

खाने के बाद इस सफर का असली आनंद यानि ट्रेकिंग शुरू हुई। तकरीबन 9 किलोमीटर की ऊंचाई तय कर के Triund Top तक पहुंचने में 4-6 घंटे का समय लगता है, इसलिए यहां टीम के साथ ट्रेकिंग सुबह दस बजे ही शुरू हो जाती है, ताकि शाम होने से पहले हर ट्रेकर टॉप पर बने कैंप तक पहुंच जाए।

हम पहले से ही लेट थे, खाने पीने के चक्कर में और लेट हो गए थे। ऊपर जाने का रास्ता दो किश्तों से होकर गुज़रता है। अगर आप अपना सफर थोड़ा हल्का करना चाहते हैं तो 3KM का रास्ता कैब से पूरा कर चेक पॉइंट से ट्रेकिंग शुरू कर सकते है, वरना तो बस बैग टांगिये और शुरू हो जाइये। मैक्लोडगंज बाज़ार में ज़रूरत का लगभग सारा सामान आसानी से मिल जाता है, रास्ते के लिए पानी, खाने का हल्का सामान वगैरह।

तीन किलोमीटर की चढ़ाई के बाद, चेकपॉइंट बनाया गया है। जहां हर यात्री को अपनी और ग्रुप की आईडी दिखानी होती है, ताकि किसी तरह की कोई भी अनहोनी होने पर कम से कम कोई रिकॉर्ड दर्ज रहे। शुरुआत का सफर तो हल्का था. बस कुछ ऊंचाई तक उबड़-खाबड़ और घुमावदार रास्ते दिखते गए और हम उन पर बस बढ़ते गए। सुरक्षा के नजरिए से कुछ संकरे रास्तों पर हिमाचल सरकार द्वारा फेंसिंग लगाई गई थी। बाकि पूरी ट्रेकिंग के दौरान हमारे साथ हैप्पी भाई थे, हमारे गाइड जो रास्ते भर हमे हिमाचल की घुमावदार रास्ते से लेकर घुमावदार राजनीति सभी कुछ बतियाते हुए Triund Top तक ले गए।

शुरुआत में सब बड़ा आसान लगता है, लेकिन चढ़ती पहाड़ी और घटते सूरज के साथ, ताकत भी जैसे घट रही थी। आने वाले टूरिस्टों की सुविधा के लिए ट्रेक की शुरुआत से ऊपर तक हर कुछ किलोमीटर पर लोकल लोगो ने छोटी छोटी दुकाने सजा रखी हैं, जहां रुककर चाय की चुस्कियां ली जा सकती हैं।

ट्रेकिंग के दौरान जिस तेज़ी से आप ऊपर बढ़ रहे होंगे, उतनी ही तेज़ी से दुकानों पर चाय के दाम भी बढ़ते जाएंगे। गिरते-पड़ते शाम होने के साथ Triund Top पर पहुंचने के बाद सूरज को ढलते हुए देखने का शानदार नज़ारा देखना बस रह ही गया क्योंकि सूरज ढलने के बाद हम टॉप पर पहुंचे थे। ऊपर ठण्ड का हाल नीचे से कई हाथ आगे था, तापमान यही कोई 1-2 डिग्री के आस-पास। सुई की तरह चुभती तेज हवाओं से बचने का एक ही सहारा था कि रात के अंधेरे में एक कोने में जलती आग के किनारे खुद को समेट लो। 2800 m की ऊंचाई में इस रात में अगर कोई साथ था तो बस एक स्लीपिंग बैग, एक कैंप, रात का अंधेरा, खुला आसमान और थोड़ी देर में आने वाली नींद, बस!

सुबह मौसम कुछ साफ था, कैंप से निकल कर देखा तो सामने आसमान चूमती ऊंची पहाड़ियां जो रात के अँधेरे में नज़र नहीं आई थी। इन्हें थोड़ी-थोड़ी देर में बादल ढक रहे थे। कैंप से निकलते ही चेहरे और खुले हाथों पर हवा के थपेड़ों का एहसास बखूबी हो रहा था, देखते ही देखते हवाओं के ये थपेड़े रुई के छोटे फाहे (गोले) में बदल गए। Triund टॉप की सुबह देखने के लुत्फ को स्नोफॉल ने दोगुना कर दिया था। करीब 15 मिनट तक चली इस बर्फ़बारी ने वहां के मौसम में और रंग भर दिया था।

बेहतरीन सुबह, पहाड़ों की ऊंचाई, सरप्राइज स्नोफॉल, गर्म-गर्म चाय और कैंप में मिले आलू के पराठों ने हमारी सुबह को उम्मीद से दुगुना बेहतर बना दिया था। अब बारी थी, वापस नीचे उतरने की, नाश्ता करने के बाद हमने एक बार फिर से उसी रास्ते से हैप्पी भाई के साथ नीचे उतरना शुरू किया। सुबह मौसम साफ़ होने की वजह से Triund टॉप से धर्मशाला स्टेडियम का शानदार नजारा आंखों के सामने था। इसी तरह के ढेरों नज़ारे को अपनी आंखों में समेटे हुए, पहाड़ों से उतरते हुए हम वापस मैक्लोडगंज आ गए।

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