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कुछ ऐसा रहा भारत में एडवरटाइज़िंग वर्ल्ड के लिए साल 2017

ये लेख लिखने का ब्रीफ संपादक ने कुछ ये कहते हुए दिया कि “high कितना मिला इंडियन एडवरटाइज़िंग को इस साल?” भोले बाबा के प्रसाद वाला high!

एडवरटाइज़िंग विचित्र प्राणी है, इसका high सबके लिए अलग रहता है। जो दो-चार अवॉर्ड जीत गया, जो पिछले साल से ज़्यादा फिल्में बना गया, जो गए अकाउंट के बदले नया अकाउंट जीत पाया, जो जाते हुए महबूब को मना कर रोक पाया, उनके लिए साल अच्छा रहा।

मैं एकाउंट्स वाला नहीं हूं। मैं फायनैंस में MBA करके भी एडवरटाइज़िंग में नहीं आया पर फिर भी आपको बता सकता हूं कि खर्चे कम करने की कवायद हर जगह जारी है। बिलेबल्स की लड़ाई, क्लाइंट की धमकियां अब हिस्सा हो चुकी हैं इंडस्ट्री की, ये साल भर जारी रहती हैं।

ऊपर-ऊपर की बात तो मैंने लिख दी मतलब जेनरिक, पर साल कैसा रहा? अगर इस सवाल का जवाब सिर्फ दिमाग में बनी याद्दाश्त की लिस्टिकल के हिसाब से दिया जाये तो-

ये साल याद किया जाएगा एक बड़ी एजेंसी- Ogilvy में सत्ता के हस्तांतरण के लिए। पीयूष मार्गदर्शक मंडल में होंगे, पर आडवाणी जी की तरह नहीं, धोनी की तरह। सोनाल वापिस आये हैं। मुझे सैमसंग का काम अच्छा लगा इस साल, “Presenting the new Samsung…”
वाली एडवरटाइज़िंग से कई ज़्यादा अच्छी एडवरटाइज़िंग देखने को मिली।

मूव, Dainik Jagran की ट्रक वाली फिल्म, Amazon का ओवर ऑल काम, मध्य प्रदेश की water colour वाली फिल्म, Fastrack की वो “मैं कैलोरीज़ बर्न करने में मदद कर दूं?” वाली फिल्म! Cutting edge है वो।

Medulla का मरीज़ों को स्टैंड अप कॉमिक बनाने वाला काम याद आ रहा है। Amazon prime, imperial blue, Vikrant Massey aur revathhi वाली एड, टाइगर श्रॉफ- बड़े आराम से (तोड़-फाड़ नहीं थी, पर फिर भी याद रही), सारेगामा कारवां आदि मैं अपने साथ आने वाले साल में लिए जा रहा हूं। ये ज़रूरी नहीं कि ये दुनिया की बेस्ट थीं, पर याद रहीं।

इस साल भी कुछ बड़े लोग छोड़ गए इंडस्ट्री। राजीव राव, वोडाफोन वाले, वो जो बिलबोर्ड उनकी शान में ogilvy और vodafone ने लगाया वो भी सब को याद रहेगा। वो भी इस साल के बड़ी यादों में से एक रहेगी। कुछ बड़े लोगों को बड़ी नौकरियां मिल गी, कुछ सरकारी हो गए। आने वाले साल में 2019 आम चुनावों की तैयारियों की झलक दिखेगी कुछ मुख्य एजेंसियों में।

इसके अलावा ये साल मुख्यतः पतंजलि, ओप्पो, वीवो का रहा। इन यॉर फेस है ये सब, आप इन्हें चाहकर भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। जहां पूरा साल ये ब्रैंड्स अपनी नयी रेंज से चौंकाते रहें, वहीं वो अपनी निम्न दर्जे के विज्ञापनों से तंग करते रहें।

पतंजलि का एड, एडवरटाइज़िंग में वही स्थान रखता है जो रोहित शेट्टी की फिल्में। कामयाब पर कुछ नया नहीं, बाबा ही स्ट्रेटेजी हैं, बाबा ही क्रिएटिविटी हैं, बाबा ही पेजिशनिंग हैं, आइडिया हैं, हीरो हैं, ज़ुबान हैं। बाकी स्वदेशी का झंडा तो बुलंद है ही।

Oppo और vivo की एडवरटाइज़िंग और बिलबोर्ड्स नहीं मिस कर पाए आप। वो एलियन्स के प्लैनेट पर भी लगे हों तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।
और साल के अंत में ज़ोमैटो ने कुछ गलत कारणों से सुर्खियां बनायीं। बाकी लेख को खत्म करने का वक्त आ गया है इसलिए कहना चाहता हूं कि डिजिटल नाम के हाथी को अब भी काबू में बहुत कम लोग कर पा रहे हैं।

(डिजिटल की बात कर दो तो इंसान एडवरटाइज़िंग का जानकार लगने लगता है।)

धन्यवाद।

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