वो बेहद नाराज़ हैं, उन्हें आप पर यानी माता-पिता, परिवार और समाज पर बहुत भरोसा था। आप उन्हें आसमान में उछालते तो वह हंसते थे, उन्हें यकीन था कि आप उन्हें गिरने नहीं देंगे, गिरने से पहले ही थाम लेंगे। वो भरोसा करते थे कि आपकी वजह से वो सुरक्षित हैं, उनकी दुनिया तो आप ही थे। वह इसी भरोसे पर हंसते थे, बेफिक्र रहते थे।
लेकिन आप उन्हें बचा नहीं पाए। वह जगह-जगह मर रहे हैं, मार खा रहे हैं, यौन शोषण का शिकार हो रहे हैं। उन्हें अगवा किया जा रहा है, उन्हें ज़बरन काम पर लगाया जा रहा है, उनके अंगों का कारोबार हो रहा है। उनसे बाल वेश्यावृत्ति कराई जा रही है, अनाथालयों से उठाकर उन्हें देश या विदेश के यौन उत्पीड़कों के पास पहुंचाया जा रहा है।
उनका बचपन उनसे छीन लिया जा रहा है और आप उन्हें बचा नहीं पा रहे हैं। आप उनका भरोसा तोड़ रहे हैं। हालांकि ऐसे तमाम गुनाहों को रोकना आपके वश में नहीं है, लेकिन बच्चों के प्रति इस निर्मम और क्रूर समाज का हिस्सा होने के नाते गुनहगार तो आप भी कम नहीं हैं।
आप उन्हें घर पर परिजनों के हवाले करके काम पर चले गए और पीछे से किसी रिश्तेदार ने उनके निजी अंगों से खेलना शुरू कर दिया, उन्हें चोट पहुंचा दी। कभी शरीर की चोट तो कभी मन की चोट। आपने सुरक्षित जगह जानकर उन्हें स्कूल भेजा और निश्चिंत हो गए, फिर एक दिन खबर आई कि किसी बच्चे का गला रेत दिया गया है। किसी ने उनके साथ बुलिंग कर दी और वह गुमसुम रहने लगा है, टीचर उसे यहां-वहां छूने लगे हैं। आखिर वो किससे शिकायत करें? किसे बताएं और क्या बताएं? बताने के लिए शब्द चुनना उन्हें आया नहीं है। वह स्कूल न जाने का बहाना बना रहे हैं और आप समझ भी नहीं पा रही हैं कि उनकी समस्या क्या है? आप उन्हें डांटकर स्कूल भेज देते हैं। इसके बाद उसकी समस्या का समाधान किसी के पास नहीं है। इसी तरह उनका बचपन बीत जाता है और उनका बचपन छिन जाता है।
2015 में भारत में बच्चों के खिलाफ अपराध की 94 हज़ार से भी ज़्यादा घटनाएं दर्ज की गई। बाल अपराध, अपराध की वह कैटेगरी है, जिसमें ज़्यादातर केस दर्ज ही नहीं होते। बच्चे कई बार खुद पर हुए अत्याचार और अपराध की बात, बता ही नहीं पाते हैं। खासतौर पर लड़कियों के मामले में लोकलाज और समाज के भय से ज़्यादातर अपराध घर के दरवाजे से बाहर आ ही नहीं पाते, परिवार को लगता है कि बात बाहर आ जाएगी तो शादी में दिक्कत आएगी। ऐसी स्थिति में बच्चियां फिर से इसी तरह के अपराध के लिए आसान निशाना होती हैं।
वैसे तो हमारे समाज में लड़के भी कम असुरक्षित नहीं हैं और अपराध उनके खिलाफ भी खूब हो रहे हैं, लेकिन लड़कियों के लिए खतरा अपेक्षाकृत ज़्यादा है। 2015 में बच्चों के प्रति अपराध के दर्ज 94,172 मामलों में 25,422 लड़कों के खिलाफ और 72,928 लड़कियों के खिलाफ दर्ज किए गए थे, यानी भारत में बच्चों की तुलना में बच्चियों पर खतरा तीन गुना ज्यादा है।
2015 में लगभग दो हज़ार बच्चों की हत्या कर दी गईं, जबकि उनके खिलाफ बलात्कार की 10,854 घटनाएं दर्ज की गईं। बच्चों के खिलाफ बलात्कार के सबसे ज़्यादा केस महाराष्ट्र में दर्ज किए गए, उसके बाद मध्य प्रदेश और ओडिशा का नंबर है। लड़कियों पर यौन हमलों की बात करें तो इस एक साल में 8,390 केस दर्ज हुए।
बच्चों के खिलाफ एक अपराध जो सबसे ज़्यादा हो रहा है, वह अपहरण है। 2015 में 41,000 से ज़्यादा बच्चे अगवा कर लिए गए, यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि उनमें से कितने मिले और कितने हमेशा के लिए खो गए या मार डाले गए। प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस (POCSO) एक्ट के तहत भी लगभग 15,000 मामले दर्ज हुए हैं। इसके अलावा, ह्यूमन ट्रैफिकिंग, लड़कियों की वेश्यावृत्ति के लिए खरीद-फरोख्त, उन्हें बाल श्रम के लिए मजबूर करने, उनका यौन चित्रण करने, उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर करने और भ्रूण हत्या जैसे अपराधों की भी संख्या कम नहीं है।
बच्चों के खिलाफ अपराधों को देखें तो अपहरण, बलात्कार, अन्य सेक्सुअल ऑफेंस और यौन उत्पीड़न के इरादे से किए गए हमले ही प्रमुख हैं। कुल अपराधों में इनका हिस्सा 80 फीसदी से ज़्यादा है।
इससे यह पता चलता है कि बच्चे समाज में आसान शिकार मान लिए गए हैं और अपराधियों को भरोसा है कि इन मामलों में वे या तो पकड़े नहीं जाएंगे या अगर पकड़े भी गए तो आसानी से छूट जाएंगे। खासकर छोटे बच्चे और बच्चियां अपने साथ हुए वाकये को सही तरीके से बता भी नहीं पाते, केस लंबा चलने की स्थिति में वो अपने बयान पर टिक नहीं पाते। और सबसे बड़ी बात, लड़कियों के मामलों में अक्सर परिवार एक सीमा के बाद साथ भी नहीं देता। यही वजह है कि 2015 में निबटाए गए 84,440 केस में से सिर्फ 7690 केस में ही अपराधियों को सजा हो पाई। यह आंकड़ा सिर्फ दर्ज केसों का है, जो मामले दर्ज नहीं हुए उन केसों की संख्या के बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
तो ऐसे में बच्चों को कैसे बचाएं?
यह मुश्किल तो है लेकिन फिर भी कुछ काम तो किए ही जा सकते हैं-
- पुलिस के स्तर पर बाल अपराधों को लेकर जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जाएं और इन्हें पुलिसिंग की बुनियादी ट्रेनिंग का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया जाए।
- पुलिस जांच में प्रोफेशनल रवैया अपनाए ताकि दोष सिद्ध होने की दर बढ़े। अपराधियों के छूट जाने से दूसरे अपराधियों का हौंसला बढ़ता है। इसके लिए आवश्यक है कि जांच के बाद समय से चार्जशीट दाखिल हो और अदालतों के सामने मजबूती से पक्ष रखा जाए।
यह सब कब होगा, किसी को नहीं मालूम, तो आप और हम क्या कर सकते हैं?
- इस बात का ध्यान रखें कि बच्चों को खतरा जितना बाहर वालों से है, उससे कहीं ज़्यादा खतरा घर, परिवार, परिचितों और पड़ोसियों से है। खासकर यौन अपराधों के मामलों में, जो कि बहुत ज़्यादा हैं, बच्चे या बच्ची का मामा, ताऊ, भाई, पिता कोई भी संदेह के दायरे से बाहर नहीं है।
- बच्चा अगर इनमें से किसी से अनावश्यक रूप से डरने लगा हो या इनके किसी व्यवहार की मामूली सी भी शिकायत आपसे की हो तो इसे गंभीरता से लें। ऐसा करके आप एक संभावित अपराध को रोक सकते हैं।
- बेहद ज़रूरी है कि बच्चों से उनके शरीर के बारे में बात की जाए। बताया जाए कि शरीर के किन अंगों को छूने न दें या वो कैसे समझें कि उनके साथ कोई छेड़खानी हो रही है। आप इस बातचीत को टालकर बच्चे या बच्ची का भला नहीं करेंगे, आपकी इस चूक की वजह से मुमकिन है कि बच्चा काफी समय तक समझ ही न पाए कि उसके साथ क्या गलत हो रहा है। स्कूल, ग्राउंड, किसी रिश्तेदार के घर या अपने खुद के घर में आपकी गैर मौजूदगी में जितनी देर बच्चा रहा है, उस समय के बारें में बच्चे से लगातार बात करें। ये बात लगातार होनी चाहिए, महीनों या कई-कई सप्ताह के इंटरवल पर नहीं।
- अगर बच्चे की तरफ से कोई शिकायत आई है तो पहली बार में ही उसे गंभीरता से लें और पुलिस के पास जाएं। बच्चे हैं, ये समझकर उनकी बात को हल्के में न टालें। हो सकता है कि दूसरी बार वो आपको बताने की हिम्मत ही ना कर पाए। ऐसा करके आप एक बड़े अपराध को होने से रोक सकते हैं।
- यौन अपराधों को इज्जत, मान या प्रतिष्ठा से न जोड़ें। ये अपराध हैं और इनके प्रति समाज का नजरिए बदलना सिर्फ आपके वश में नहीं है, लेकिन अपने स्तर पर इन तय मान्यताओं को मजबूत न करें।