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जनता को सिर्फ मुफ्त का खाना नहीं, रोज़गार भी चाहिए ‘सरकार’

मेरी समझ में कोई व्यवसायिक कम्पनी, सरकारी विभाग, सामाजिक क्षेत्र, खेल, सेना, राजनीतिक दल, मेडिकल क्षेत्र, निर्माण का क्षेत्र, शिक्षा जगत, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में योग्य लोगों को सबसे पहले चयन में वरीयता दी जाती है और ऐसे लोग ही समाज में सफल माने जाते हैं। भारत जैसे विशाल और एक बड़ी आबादी वाले देश में कई इलाके और समुदाय आज भी अभाव और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। सरकार भी चाहती है कि देश सम्पन्न और समृद्ध बने इसलिये कई सरकारी योजनाएं ऐसे क्षेत्रों में चलाई जा रही हैं। लेकिन कभी-कभी विभागों की लापरवाही या भ्रष्टाचार के कारण और कुछ एनजीओ द्वारा उन योजनाओं को ठीक से नहीं चलाने के कारण समाज में असमानता की स्थिति पैदा होती है।

आज से छह महीने पहले पंजाब केसरी में एक खबर पढ़ी थी, खबर झारखंड राज्य की थी। सरकार द्वारा ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ को एक एनजीओ ‘टच स्टोन फाउंडेशन’ को चलाने की ज़िम्मेदारी देने की बात की जा रही थी। बाद में मुख्यमंत्री दाल-भात योजना को ‘मुख्यमंत्री कैंटीन योजना’ के रूप में प्रस्तावित कर इसे मंज़ूर कर लिया गया।

पांच रुपये में गरीब जनता को भोजन देना सुनकर अच्छा लगता है, लेकिन इस खबर को पढ़कर मन में हंसी भी आती है और कई विचार भी ज़हन में आते हैं।

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या राज्य के मुख्यमंत्री गरीब तबके के नागरिकों को रोज़गार मुहैया कराने में असफल हो गए हैं, जिस कारण अपनी नाकामी को छुपाने के लिए उन्हें इस प्रकार की योजनाएं बनानी पड़ती हैं?

फोटो आभार: flickr

क्या राज्य को चलाने वाली शक्तियों को इतना भी पता नहीं होगा कि नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताएं क्या हैं? आखिर राज्य सरकार किसी के ज़ख्म पर मरहम पट्टी ही लगाती रहेंगी या फिर कभी उस ज़ख्म जिसे गरीबी या अभाव कहते हैं, का पूर्ण इलाज भी करेंगी? जब एक नागरिक को नियमित आय मिलेगी तो क्या वह अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन, अच्छे वस्त्र और बेहतर शिक्षा नहीं देगा?

केंद्र सरकार द्वारा पहले से ही कुपोषण जैसी समस्या से लड़ने के लिए ICDS यानी ‘समेकित बाल विकास योजनाएं’ राष्ट्रीय स्तर पर चल रही हैं। राज्य सरकार को इन्हें बेहतर और सुदृढ़ कैसे बनाना है, इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है ना कि ‘दाल-भात योजना’ जैसे कदमों से उन्हें पंगु बनाने की।

कुछ राज्यों में खाद्ध वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के कारण भी यह प्रणाली भी असफल होती दिखती है। पिछले साल कुछ ऐसी घटनाएं अखबारों की सुर्खियों में थी कि गरीब तबके के लोगों को समय पर अनाज ना मिलने के कारण कुछ लोगों की मृत्यु भूख के कारण हुई।

अक्टूबर 2017 को NBT में छपी एक खबर के अनुसार-

“गौरतलब है कि झारखंड की सरकार पिछले एक महीने में लगातार कथित रूप से भूख से हुई मौत को लेकर घिरी हुई है। पहला मामला झारखंड के सिमडेगा ज़िले में 11 साल की एक मासूम संंतोषी कुमारी की मौत का सामने आया। उसके बाद धनबाद में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया जिसमें घर में राशन नहीं होने से रिक्शाचालक की मौत हो गई।”

अब सवाल यह उठता है कि क्या देश में अनाज की कमी है? वर्ष 2015 के न्यूज़-18 की एक खबर के मुताबिक-

“सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के देशभर में मौजूद गोदामों में 2008 से लेकर अब तक कुल लगभग 36 हज़ार टन अनाज सड़ चुका है। प्रति व्यक्ति 440 ग्राम की खपत के आधार पर जितना अनाज सड़ चुका है, उतने से देश के आठ करोड़ लोगों का पेट भर जाता।”

2010 को ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक-

“पिछले 10 सालों के दौरान गोदामों में कितना अनाज खराब हुआ, खराब होने की क्या वजह रही और खराब अनाज को हटाने के लिए सरकार की क्या कोशिशें थी और कितना खर्च आया? इस संदर्भ में जनवरी 2008 में उड़ीसा के कोरापुट ज़िले के आरटीआई कार्यकर्ता देवाशीष भट्टाचार्य ने गृह मंत्रालय को एक आवेदन भेजा था। इस आरटीआई आवेदन का जो जवाब मिला, वह चौंकाने वाला था। मालूम हुआ कि बीते 10 सालों में 10 लाख टन अनाज बेकार हो गया। जबकि इस अनाज से छह लाख लोगों को 10 साल तक भोजन मिल सकता था। सरकार ने अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, लेकिन अनाज गोदामों में सड़ता ही रहा। खराब अनाज नष्ट करने के लिए भी सरकार ने 2 करोड़ रुपये खर्च किए। एक दीगर सवाल के जवाब में सरकार ने अनाज के खराब होने की वजह उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना, भंडारण और खराब वितरण प्रक्रिया को बताया।”

भारत के सभी राज्य और वहां की सरकारों की ज़िम्मेदारी एक बेहतर राज्य बनाने की होती है। भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और रोज़गार की व्यवस्था की ज़िम्मेदारियां भी राज्य सरकारों के ही ऊपर होती हैं। इन्हीं राज्यों से बेहतर छात्र, बेहतर नागरिक, बेहतर लीडर, बेहतर डॉक्टर, वकील, शिक्षक, खिलाड़ी, गायक, लेखक और वैज्ञानिक आदि निकलकर देश का नाम ऊंचा करते हैं।

उसी राज्य की ज़िम्मेदारी होती है कि जो असहाय, रोगी, कमज़ोर, अशिक्षित और आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े हुए हैं, उन लोगों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में उनकी मदद करें।

सरकारें बस इतना कर दें तो मैं समझूंगा कि सरकार ने वास्तव में अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया और लोकतंत्र को जीवित रखने में मदद की।

मैं यह मानता हूं कि देश में सरकार किसी भी पार्टी या दल की हो, अगर वह जनता के लिए बेहतर कार्य कर रही है तो उसकी तारीफ तो बनती है और देश के नागरिक होने के नाते ऐसी सरकार की प्रशंसा करनी भी चाहिए। लेकिन आज़ादी के इन सत्तर वर्षों के बाद भारत ने जितना विकास किया, अगर पीछे मुड़कर उन वंचित वर्गों के लोगों पर भी सरकार की कृपादृष्टि पड़ती तो शायद भारत विकास के एक और पायदान पर ऊपर उठता जो इस देश के लिए और इस देश की जनता के लिए गर्व का कारण होता।

सोशल मीडिया इमेज आभार: flickr 

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