जनवरी के महीने की लगभग बीचों-बीच पड़ने वाली ये १३ तारीख़, बिना कोहरे वाली रात, और कहीं दूर से ढोल बजने की आवाज़–ये आज का समां है जो मुझे बचपन के उस दौर में ले जाता है जब अक्सर बच्चों को मज़हब और ज़ात-पात से कुछ लेना देना न होता था, क्यूँकि दिन भर खेल-कूद में हो रहे झगड़े और शाम तक झटपट से हो जाने वाले मेल के एहसासात उस वक़्त ज़ादा मायने रखते थे, बाक़ी सब चीज़ें तो बस कभी न रुकने वाले निज़ामी तौर-तरीक़े और रवानी से चलती ही रहती थीं और ये सिलसिला हमेंशा के लिए है, यूँ ही. अंग्रेजी में जिसे ‘नास्टैल्जिया’ कहते हैं, बस समझ लीजिये कुछ वैसा ही महसूस होता है, हर साल. दिल चाहता है कि जैसे-तैसे वो दिन वापिस लौट आएं.
सुबह-सवेरे स्कूल में सबको “हैप्पी लोहड़ी” कहने के बाद घर वापिसी मेरे लिए कुछ ख़ास तो नहीं होती थी, लेकिन मेरी बचपन की पक्की सहेलियों की शाम में होने वाली मसरूफ़ियात सुनकर मेरा ख़ूब जी चाहता कि मैं भी लोहड़ी में होने वाली उधम-चौकड़ी का हिस्सा बनूँ; हालांकि, ऐसा आज तक तो मुमकिन नहीं हो पाया. नहीं, मैं अपने पंजाबी दोस्तों से नाराज़ नहीं हूँ, कुछ चीज़ें बिला वजह भी हुआ करती हैं.
पंजाबी ज़ुबान से मेरा बुहत बचपन से राब्ता रहा है और वह मुझे बुहत पसंद भी है. कोई तीसरी या चौथी जमात में एक नज़्म हुआ करती थी या यूँ कहिये के बच्चों की एक ‘राइम’ जो कुछ इस तरह से थी–“लोहड़ी पई लोहड़ी, दे दे माई लोहड़ी…“
हालांकि, ये गाना मैंने किसी को गाते हुए सुना तो नहीं है, लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि जब भी कभी कहीं लोहड़ी जलती है, सब यही गाते होंगे. बचपन से दिमाग़ में बसी हुई ये लीनें मुझे तेज़ी से गुज़रते हुए वक़्त की तरफ़ इशारा करती हैं, जिनको याद करके मेरा बचपन आज भी उछलने-कूदने लगता है और उस किताब में छपी हुई एक बच्चे की वो ब्लैक-एंड-वाइट तस्वीर अचानक नज़र के आगे घूम जाती है, जिसमें मैंने रंग भरने की कोशिश भी की, शायद बिना रंग की वो तस्वीर मुझे किसी त्योहार की न लगती हो! ख़ैर.
कभी अपनी छत की ऊँची मुंडेरों से लटक-लटक कर, तो कभी घर की खिड़कियों से झाँक कर कॉलोनी में जलती हुई लोहड़ी के चारों तरफ इकठ्ठा ढोल की ताल पर नाचते हुए लोगों को देखना, भुनती हुई मूँगफली, रेवड़ी और गुड़ के धुएं के साथ मिली-जुली उस भीनी-भीनी बू का हवाओँ में फैलना, और हंगामे करते हुए बच्चों को एक-टुक तकते जाना, ये सब मेरी मसरूफ़ियात होती थीं मेरे छोटे भाई के साथ. ये सब नज़ारे अब असल में नज़र थोड़े आते हैं. अलबत्ता, हर साल कभी न लौट कर आने वाले बचपन और उन मासूम एहसासात की याद ज़रूर दिला जाते हैं.|