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लेख

महिलाओं को शरीर में कैद करने की साजिश

इस मशीनरी युग में तथा इतने विकास के बाद भी औरत की स्थिति वही है जो आज से कुछ दस दशकों पहले थी। तब भी औरतें अपने मूलभूत अधिकारो के लिऐ लड़ रही थी, आवाज उठा कर अपना विद्रोह दर्ज करा रही थी और आज भी वो उन्हीं मूलभूत अधिकारो और आवश्यकताओं के लिऐ खड़ी है। उन्हें हर युग मे गिराया जाता रहा है। इस समाज के द्वारा, इस तथाकथित पुरुषवादी सोच के जरिए उस पर अनेको प्रकार की पाबंदी लगाई जाती रही है। हर क्षेत्र में पुरुष उसे अपने से कम आंकता रहा है। ये किस्सा न तो नया है और न ही इसे सुनकर किसी को कोई फर्क पड़ता है।

 

स्त्री और पुरुष दोनों ही मानवजाति के दो अलग प्राणी हैं, जो प्रजनन की प्रक्रिया के आधार पर विभाजित होते हैं। लेकिन पुरुष को हमेशा इस बात का अभिमान रहता है कि वह एक पुरुष है, कि वह अपने शरीर से और अपने गुप्त अंगों से लज्जित नहीं होता बल्कि उसे लेकर वह अभिमानित रहता है।

 

स्त्री और पुरुष दोनों की संरचना एक दूसरे से भिन्न है, जहाँ एक तरफ पुरुष अपने शरीर को लेकर सहज रहता है, उसकी अपने शरीर से मित्रता होती है क्योंकि उसकी इस संरचना में प्रकृति ने उससे हाथ मिलाकर रखा है। बाल्य अवस्था से लेकर वृद्धावस्था तक उसकी स्थिति में कोई बदलाव नही आता है, उस पर कुछ थोपा नही जाता। वहीं दूसरी तरफ इसके विपरीत स्त्री में  निरंतर बदलाव आता रहता है, उसे अपने शरीर के साथ सहजता और मित्रता का भाव जब भी आने लगता है तब उसमें कोई बदलाव आ धमकता है। वह उसकी बाल्य अवस्था से किशोरावस्था की ओर हो या किशोरावस्था से वयस्कता की ओर हो या फिर वयस्कता से वृद्धावस्था की ओर हर चरण पर उसका शरीर, उसकी संरचना उससे सहजता नही निभा पाती है। उसमें निरंतर बदलाव आता रहता है  जिसके चलते वह अपने शरीर को लेकर कॉन्फिडेंट नहीं रहती। वह चाह कर भी अपनी संरचना से सहज नहीं हो पाती।

 

लेकिन भले संरचना के आधार पर दोनों ही एक दूसरे से भिन्न हैं, पर बौद्धिक स्तर पर दोनों का विकास एक सा होता है। आदिम इतिहास को देखा जाए तो मालूम पड़ता है कि समाज मे मातृसत्ता का चलन था। पिता का काम केवल खाना जुटाने का होता था।  गर्भ धारण की प्रक्रिया में औरत की भूमिका को पुरुष ने ही गौण बना दिया और अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिऐ उसने इसमें अपनी भूमिका को उच्च बता कर पूरी सत्ता को पुरुषवादी सोच के  अनुसार बनाया। पुरुष औरत और उसके शरीर को केवल भ्रूण को रखने की जगह मानने लगा।

एक पुरुष अपने अंगों को लेकर अभिमान में रहता है, उसे इसके लिए कोई शर्म महसूस नहीं होती। इस तथाकथित सभ्य समाज में वो खुले मे पेशाब करता हुआ नजर आता है और उसे इस बात से कोई आपत्ति नही होती।  अगर कोई दूसरा व्यक्ति उसे सामने देखता आ रहा हो तो भी वह सहज बना रहता है। वो खुले बदन कहीं बी बेरोक टोक आ जा सकता है। वहीं इसके विपरीत हमारे समाज में स्त्री की यह भी दशा है, जहां उन्हें आज भी घूंघट, हिजाब, बुर्का आदि में जबरन ढंक कर रखा जाता है और उनके शरीर को ढंकने वाली अनेकों प्रथाओं से उन्हें बांधने की कोशिश की गयी है।

 

एक तरफ वह शारीरिक संरचना और शरीर के प्राकृतिक बदलाव के कारणवश सहज नहीं हो पाती क्योंकि बदलाव के साथ तो वो कुछ हद तक हाथ मिला ले, पर सभ्य समाज और तथाकथित पुरुषों का समाज उसे उसके अंगों के साथ सहज होने पर अपनी मान्यताओं को थोपता रहता है और उसे सहज होने से रोकता है।

 

इस तथाकथित सभ्य समाज के पीछे वह अपनी दोहरी सोच रखते हुए पूरी स्त्री जाति पर अपना नजरिया थोपता नजर आता है।

 

लेकिन वहीं दूसरी तफ आदिवासी समाज है। आज भी जो आदिवासी समाज है वहां महिलाओं की सत्ता है। भारत के ही कई आदिवासी इलाकों में  महिलाएँ समाज में प्रमुख भूमिका में होती हैं। उन्हें उनके शरीर से बांध कर नहीं रखा गया है, इसलिए वे अपने शरीर के साथ सहज हैं। बिना ब्लाउज पहन कर रहना, नदी में पुरूष के साथ सहज होकर नहा लेना, अपने पसंद के पुरूष के साथ रहने का फैसला करना, और फिर साथ रहने के बहुत दिनों बाद शादी का फैसला लेना जैसी परंपराएँ आज भी आदिवासी समाज में प्रचलित हैं जो बताता है कि भारतीय संस्कृति में अगर हम मुख्यधारा की ब्राह्मवादी संस्कृति को छोड़ दें तो महिलाओं के लिये एक प्रगतिशील रवैया दिखता है।

लेकिन हम शहर में रहने वाले, ब्राह्मवादी सोच से ग्रसित लोग आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का अभियान चलाते हैं या इसका समर्थन करते हैँ। इसका सीधा मतलब है महिलाओं को अपने शरीर तक समेट देना, उनका सहज और प्राकृतिक मान्यताओं को खत्म करना। जबकि महिलाओं के वर्तमान समस्याओं के लिये अगर हम अपने पीछे जाकर आदिवासी समाज के तौर-तरीकों का अध्ययन करें तो हमारा वर्तमान समाज ज्यादा प्रगतिशील बन पड़ेगा।

 

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