निश्चित तौर पे न्यायपालिका के लिए शर्मिंदगी का विषय भी बनेगा।
इसपर काफी लोगों की अलग अलग प्रतिक्रियाएं आयी ।कुछ ने इसे सही बताया और कुछ ने इसे गलत ,सुब्रमण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप के लिए भी कहा वगैरह वगैरह।
लेकिन यहाँ एक प्रश्न जो सबसे ज्यादा कचोट रहा है कि आखिर ऐसा क्या हो गया जिससे इन जजों को इसतरह प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी।जो खुद जनता को न्याय देते रहे हो वही खुलेआम जनता से न्याय मांग रहे।
मतलब साफ है, मामला उतना संगीन नही है जितना हम समझ रहे हैं बल्कि उतना संगीन हो चुका है जो हमारी समझ से परे है।
इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं।केंद्र सरकार ने देश मे जिस तरह का ध्रुवीकरण करने का काम किया है, उससे एक न एक दिन ये होना ही था।ध्रुवीकरण सिर्फ धर्म के नाम पर ही नही ,बल्कि राष्ट्र के नाम पर भी ।आज देश मे कोई भी सरकार की आलोचना भी कर दे ,वो देशद्रोही और पाकिस्तानी कहलाने का अधिकारी बन जाता है। तुम्हारी देशभक्ति हिंदुस्तान के लिए अपने कर्तव्य पालन से नही निर्धारित होती है, बल्कि पाकिस्तान को गाली देने से होती है।
वैसे तो चीफ जस्टिस मिश्र के चयन पर ही विवाद हो गया था।क्योंकि केंद्र को और कोई व्यक्ति इतनी योग्यता वाला मिला ही नही जितनी योग्यता एक जमीन घोटाले वाला जज रखता है।यहाँ तक तो ठीक था लेकिन जस्टिस लोढ़ा की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो जाना ,और उसकी कोई उचित जांच न करवाना वास्तव में देश मे आने वाले रावण राज की तरफ इशारा कर रहा था।
अरुण शौरी लिखते है ,की जब मेरे लिखे एक संपादकीय पर सुप्रीम कोर्ट स्वत संज्ञान लेकर पचीसों साल वो मुकदमा चला सकती है तो आखिर एक जस्टिस की मौत के मामले पे क्यों नही ।
जवाब साफ है सिर्फ इसलिए कि वो सोहराबुद्दीन एनकाउंटर पे फैसला देने वाले थे ,जिसमे हिन्दू धर्म रक्षक और राष्ट्र्वादी अमित शाह खुद आरोपी थे।
सरकार निरन्तर राजनीति का स्तर गिरा रही और जनता को धर्म और राष्ट्रवाद का झुनझुना थमा रही ।वो तो भला हो कि देश मे पत्रकारिता अभी भी बची है भले ही ज्यादातर गोदी मीडिया हो लेकिन बाकी प्रेस्टिट्यूट्स भी है ,जो सरकार के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की कुव्वत रखते हैं वरना ये प्रेस कॉन्फ्रेंस भी इन्हें देश के बाहर जाकर ही करनी पड़ती।
सत्ता की हवस में ये लोग लोकतंत्र के साथ बार बार बलात्कार कर रहे है।
जनता कब जागेगी ?
कब जवाब देगी ये तो वही जाने ।लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट का जज ही कह दे कि लोकतंत्र खतरे में है, तो वाकई देश को सोचना तो पड़ेगा ही।