आज बसंत पंचमी है. आज हर उन व्यक्तिओ का दिन है जो सनातन आस्था पे विश्वास रखते है. हर गली, मोहल्ला, चौक चौराहा अलग अलग किस्म के पंडालों से सजा हुआ है, और पंडालों में छोटी बड़ी खूबसूरत माँ सरस्वती की मूर्ति चमक रही है, पंडालों के आस पास रंग बिरंगी और रोशनियां और रोशनियों के बीच रंग बिरंगी गानों पे थिरकते युवा मानो ऐसा लग रहा है कि आज राम जी अयोध्या से लौटे हो और अयोध्या नगरी सजी हो.
हर उम्र की लड़कियों के ऊपर रंग बिरंगी साड़ियां, चूंकि बसंत पंचमी के दिन लड़कियो के ऊपर साड़ी काफी भाँति है, उनकी सुंदरता मानो इस पृथ्वी पे चार चांद लगा देती है.
पूजा के दिन सुबह सो के उठते के साथ ही मन मे एक सकारात्मक वातावरण तैयार हो जाता है. मन मे सिर्फ यही चलता है कि आज पूजा है, आज अच्छे से स्नान आदि से निर्वित हो माँ सरस्वती की आराधना करनी है.
खास कर विद्यार्थियों को देख तो ऐसा लगता है कि वो सारा काम भूल गए है, जो पंडाल में माँ सरस्वती को बिठाए है वो एक महीना पहले से ही तैयारियां करने लगते है. चंदा की रसीद काटना टेंट लाइट साउंड इत्यादि बुक करना.उनकी खुशी चरम पर होती है.
मेरे घर के बाहर कुछ युवा लड़के पंडाल बनाये हुए है उनको देख ऐसा लगता ही नही की वो युवा है ऐसा लग रहा है जैसे मानो वर्तमान राजनीति के पूर्ण बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी है. वो किसी की सुन ही नही रहे है.
सब अपने धुन में है, बुंदिया बनाओ प्रसाद लाओ, पंडाल को खुद से थोड़ा मॉडर्न करो बिल्कुल माँ सरस्वती के प्रेम और आगमन पे गृहस्थ जीवन के अनुयायी बन गए है.
सब चीज की तैयारियां हो जाने के बाद पंडित को बुलाओ, उनसे पूजा करवाओ और फिर बाद में सबको प्रसाद बाटो, सच मे देख ऐसा लगता है कि बिल्कुल एक 50 साल के मर्द की तरह कार्य को सिद्ध करते है.
लेकिन इसके इतर मुझे दुख इस बात का होता है कि क्या सभी लड़के एक जैसे है मैं तो साफ कहूंगा नही,
हालांकि ये भौतिक पृथ्वी का सच है कि जैसे पांचों उंगलियां बराबर नही वैसे लोग भी बराबर नही. सबकी सोच सबके विचार अलग. कोई टाई पहन के रास्ते में निकलना चाहता है तो कोई शर्ट का कॉलर खड़ा कर रास्ते पे निकलना चाहता है.
मैं सरस्वती पूजा के पूर्व अपने नियमित समय मे ऑफिस आया जाया करता था, शाम में आने के वक्त मैं अक्सर देखा करता कि कुछ युवाओ की मंडली जो शक्ल से बिल्कुल गंदा जैसे कि उनके बाल ऐसे लगते जैसे किसी चूहे ने कुतर दिया हो, फटी जीन्स, मुँह में तम्बाकू, गुटखा चबाते हुए बोली में बिल्कुल अश्लीलता झलक रही थी.
वो आने जाने वाले टेम्पो वालो से सरस्वती पूजा के नाम पे चंदा वसूल कर रहे थे, चंदा नही देने पे उनके साथ बद्तमीजी से पेश आना उनको गालियां देना उनकी फितरत थी.
साफ तौर पे कहू तो माँ सरस्वती के नाम पे रंगदारी वसूली जा रही थी.
अपने किस्मत से खफा और मजबूरियों से परिपूर्ण टेम्पो वालो को रंगदारी के तौर चंद देना मजबूरी थी. यदि वो चंदा नही देते तो वो उनके टेम्पो के शीशे तोड़ देते उनको मारते पीटते इससे अच्छा देना ही उचित था.
मैं सोचता हूं क्या ऐसे लोग समाज की गंदगी नही ये समाज को दूषित करने वाले युवावस्था के जंगी कीड़े है जो अपनी हरकतों से पुराने हो चुके है.
ऐसे दूषित कीड़े माँ सरस्वती के नाम पे चंदा उठा दारू का सेवन करते है अपनी अय्याशी को परिपक्व करते है.
और ऐसे लोगो की तो दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है, समाज मे, ये हर गलत फर्जीवादी धंधा कर गंध मचाये हुए है.
क्या ऐसे लोगो के लिए कोई कानून नही ?