Site icon Youth Ki Awaaz

आम लोगों की मुकम्मल आवाज़ महाश्वेता देवी को उनके जन्मदिन पर सलाम

गोविंद निहलानी निर्देशित ‘हज़ार चौरासी की माँ’ मैंने पहले देखी और महाश्वेता देवी के जिस मूल बांग्ला उपन्यास पर यह फिल्म आधारित है, उसका हिंदी अनुवाद ‘1084वें की माँ’ मैंने बाद में पढ़ा। गोविंद निहलानी ने उपन्यास के पात्रों की मन:स्थिति, उनके हाव-भाव, स्थिति विशेष में उनकी क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं सभी को बेहद सूक्ष्मता और गहराई के साथ समझा है और बहुत ही कुशलता से उनका फिल्मांकन किया है। यह फिल्म रूपांतरण इतना संतोषप्रद है कि इस फिल्म को देखने के बाद मूल साहित्यिक कृति को पढ़ने की कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। लेकिन मूल उपन्यास पढ़ लेने के बाद इसके सिनेमाई रुपांतरण को नए सिरे से समझने का अधिक अवसर मिल सकता है।

महाश्वेता देवी का लेखन इतना उम्दा और प्रभावशाली है, कि उनका यह उपन्यास अपने आप में एक सिनेमा है। इसलिए मुझे लगता है कि फिल्म के रूप में इसकी परिकल्पना करते हुए गोविंद निहलानी को बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ी होगी।

महाश्वेता देवी के इस उपन्यास ‘1084वें की माँ’ की केन्द्रीय संवेदना यह है कि समाज की विषमताओं के खिलाफ संघर्ष करते हुए बलिदान देने वाले एक पात्र की माँ उसके बलिदान के कारणों और महत्व को समझने की कोशिश करती है। जब वह इसे समझ लेती है, तब वह इन्हें मूल्य के बतौर आत्मसात करने की कोशिश भी करती है। यह इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण है क्यूंकि पुत्र के इस बलिदान को उसके अभिजात्य पिता और अन्य सम्बन्धियों सहित पूरा का पूरा बुर्जुवा समाज न सिर्फ खारिज करता है, बल्कि उसके वजूद को भी मिटा देना चाहता है!

इन प्रपंचों को समझ लेने के बाद माँ को अपने ही रक्त सम्बन्धियों और अपने ही अभिजात्य समाज से घृणा होने लगती है। उपन्यास के लगभग अंतिम हिस्से में घर में चल रही एक पार्टी में शराब में डूबे, झूमते-नाचते, बौद्धिकता और प्रतिबद्धता की दिखावटी बहसों में शामिल लोगों को देखकर उसे बहुत गहरी बेचैनी और वेदना होती है और उन क्षणों में वह सोचती है- “धरती की सब कविता, कविता के बिम्ब, लाल गुलाब के गुच्छे, हरी घास, नियॉन की रोशनी, माँ के चेहरे पर फैली हंसी, शिशु का क्रंदन… हमेशा अनंत काल तक इन सबका भोग करती रहेंगी ये लाशें! अपने सड़े गले-गंधाते अस्तित्व के लिए धरती के हर सौन्दर्य और माधुर्य को हथियाए रहेंगी, क्या इसीलिए व्रती मर गया? सिर्फ इसलिए?”

महाश्वेता देवी खुद एक एक्टिविस्ट लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। सिर्फ अपने लेखन से ही नहीं बल्कि ज़रूरत पड़ने पर विरोध के मोर्चों पर डट जाना उनका स्वभाव था।

महाश्वेता देवी की वाम प्रतिबद्धता जगजाहिर रही है, लेकिन जब बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार के रहते हुए सिंगूर और नंदीग्राम जैसी जनविरोधी घटनाएं हुई तब वो सरकार की नीतियों के सबसे मुखर आलोचकों और सत्याग्रहियों में शामिल रहीं।

मेरे खयाल से उपन्यास ‘1084वें की माँ’ की प्रेरणा महाश्वेता देवी की वही पक्षधरता रही है, जो उनके उपन्यास के पात्र व्रती की है और इस उपन्यास के इतने प्रभावी होने का एक बड़ा कारण भी यही है कि महाश्वेता के खुद के विचारों और आचरण में कोई दोहरापन नहीं था। महाश्वेता देवी चूंकि इस उपन्यास की सर्जक हैं, इसलिए उन्हें ‘1084वें  की माँ’ की माँ भी कह सकते हैं। उन्हें इस दुनिया को अलविदा कहे लगभग डेढ़ वर्ष हो गए हैं, यदि वे जीवित होती तो आज के दिन जीवन के 93वें वर्ष में प्रवेश करतीं। जनपक्षधरता के प्रति समर्पित इस सशक्त लेखिका को उनके जन्मदिन पर सलाम।

फोटो आभार: फेसबुक पेज Mahasweta Devi

Exit mobile version