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एक बार तो ‘सुनैना’ के लिए भी ‘मुक्काबाज़’ देखना बनता है

mukkabaaz

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कई लोग फिल्म ‘मुक्काबाज़’ को जाति की राजनीति, खेल और खेलने वालों के खस्ताहाल और खांटी देसी पंचलाइनों जैसे तमाम पहलूओं की दिलचस्प नुमाइश के लिए सराह रहे हैं। लेकिन मेरे खयाल से सुनैना के किरदार को उसके हक की तारीफें कम मिल रही हैं।

फिल्म के हर किरदार से बिल्कुल अलहदा सुनैना जितनी भी बार पर्दे पर आती है, आप सहजता से बैकग्राउंड में विद्रोही संगीत की कल्पना कर सकते हैं।

भगवान दास के उसे थप्पड़ मारने के बाद उसकी नज़रें झुकने के बजाय जब और तीखी होकर भगवानदास को देखती हैं तो आप एक झटके में उसके ‘फैन’ बन जाते हैं। और ये फैनगिरी उसकी अपनी मां को तर्क से हराते वक्त, बेबाकी से श्रवण के दोस्त के घर से निकलते वक्त, एक पत्नी के तौर पर निर्भीकता और पूरे हक से श्रवण से झगड़ते वक्त परवान चढ़ती है।

फिल्म में कहीं भी उसके गूंगेपन को बेचारगी के तौर पर न पेश करना अनुराग कश्यप की जीत है। सुनैना गूंगी लगती ही नहीं, बस ऐसा लगता है कि उसने अपनी जीभ को कुछ दिनों की छुट्टी पर भेजकर अपनी आंखों और हाथों को बोलने के काम पर लगाया हुआ है।

जिमी, विनीत,रवि किशन और फिल्म के वो तमाम कलाकारों जिन्हें मैं नाम से नहीं जानती, इन सभी ने मिलकर बेशक कला का एक उम्दा नमूना पेश किया है लेकिन ज़ोया की अदाकारी मेरे ज़हन के एक खास हिस्से में दाखिल हो जाती है। इसलिए इस अनोखे किरदार के लिए भी आपको “मुक्काबाज़” देखनी चाहिए। न जाने कब आपको (खासकर कि लड़कियों को) आवाज़ बुलंद करने के लिए सुनैना साहस दे जाए!

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