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बेरोज़गारी और लीडरशिप की कमी के कारण होती हैं कासगंज जैसी हिंसा

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ दिनों के अंतराल पर सांप्रदायिक हिंसा देश के किसी न किसी हिस्से से सुनने को मिलती रहती है। इस बार गणतंत्र दिवस पर उत्तर प्रदेश के कासगंज में दो समुदायों के बीच हिंसा हुई और उसके बाद इलाके में तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है। आधुनिक काल का इतिहास सांप्रदायिक घटनाओं से भरा पड़ा है। सांप्रदायिक हिंसा आधुनिक काल की शब्दावली है, मध्यकाल में सांप्रदायिक हिंसा को क्या कहते थे जानकारी नहीं। सांप्रदायिक हिंसा होने और इसके बढ़ने का कारण बेरोज़गारी और राजनीतिक व्यक्तित्वों में विश्वसनीयता की कमी या कहें कि एक जननेता की कमी को माना जा सकता है।

पहला- बेरोजगारी पर गौर करें:

1923 और 1927 के बीच संयुक्त प्रांत (मतलब यूपी/अवध) में (जो सर्वाधिक दंगा प्रभावित प्रांत था), 91 सांप्रदायिक उपद्रव हुए। इतिहासकार सुमित सरकार ने अपनी किताब ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ में लिखा हैं, “1920 के दशक में सांप्रदायिक हिंसा की वृद्धि के कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि शिक्षा का तो पर्याप्त प्रसार हो चुका था, लेकिन उस अनुपात में नौकरी के अवसरों में वृद्धि नहीं हुई थी। मार्च 1931 में कानपुर में होने वाले भारी दंगों की पृष्ठभूमि तैयार करने में 1920 के दशक में हथकरघा उद्योग की मंदी एक प्रमुख कारण रही। हथकरघा उद्योग मुख्य रूप से मुसलमानों के हाथ में था, दूसरी ओर हिंदू उद्योगपति और व्यापारी आगे बढ़ रहे थे।”

धीरे-धीरे बेरोज़गारी बढ़ती चली गई और सांप्रदायिक विचार उठता ही चला गया। आज के संदर्भ में देखें तो मौजूदा समय में साल 2017 में भारत में बेरोज़गारों की संख्या 1.78 करोड़ है और साल 2018 में यह बढ़कर 1.8 करोड़ हो सकती है। 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी के घोषणापत्र में रोज़गार बढ़ाना मुख्य एजेंडे में शामिल किया गया था। लेकिन जो आंकड़े मौजूद हैं, उससे स्थिति साफ है कि बेरोज़गारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।

जब सरकार अपने किए गए वादों को पूरा करने में असफल रही है तो अब यह समय है कि नौजवान उन्हें उनका वादा याद दिलाए। लेकिन यहां बड़ी चालाकी से नौजवानों को कभी करणी सेना बनाकर तो कभी हिन्दू- मुसलमान के ‘राष्ट्रीय सिलेबस’ में उलझाकर रख दिया जाता है। 2019 अब बहुत दूर नहीं, अपनी ऊर्जा को ज़ाया ना करिए, जिन्होंने वादा किया था अब उनसे सवाल पूछने का वक्त है।

दूसरा- व्यक्तित्व में विश्वसनीयता की कमी या एक जन नेता की कमी पर गौर करें:

1905 में बंग-भंग धार्मिक आधार पर हुआ। हिन्दू-मुस्लिम आमने-सामने थे। टैगोर ने गीत लिखा ‘आमार शोनार बांग्ला, आमि तोमाए भालोबाशी।’ (मेरे सोने जैसा बंगाल, मैं तुमसे प्यार करता हूं।) इस गीत से बंगाल में रहने वाले सभी लोगों ने अपने आपको जोड़ा और यहीं से स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ।

आज कौन है जिस पर दोनों समुदायों का भरोसा हो! व्यक्तित्व पर विश्वसनीयता का संकट है। सांप्रदायिक हिंसा उस वक्त भी थी, देश का विभाजन तक हुआ! फिर भी व्यक्तित्व की विश्वसनीयता दोनों समुदायों के बीच बनी हुई थी और आज भी ‘उन लोगों’ की विश्नसनीयता बनी हुई है।

अभी हालात ऐसे हैं कि सूबे का मुख्यमंत्री एक महंत को बनाया गया है और प्रधान सेवक का ‘पुष्पक विमान’ हमेशा तैयार ही रहता है। देश के किसी भी हिस्से में कोई फसाद हो तो सबसे ज़्यादा कमी किसी जननेता या एक ऐसे व्यक्तित्व की खलती है, जिस पर दोनों समुदायों का भरोसा हो। फिर भी उम्मीद नौजवान युवाओं से ही है, हिन्दू-मुसलमान में अपनी ऊर्जा ज़ाया मत करना। जब मन भटकने लगे तो इस गीत को गुनगुना लेना।

“तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा।
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया, हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया।
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती, हमने कहीं भारत कहीं इरान बनाया।
जो तोड़ दे हर बंध वो तूफ़ान बनेगा, इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा।”

फोटो प्रतीकात्मक है।

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