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खस्ता आंगनबाड़ी केंद्रों का नतीजा हैं कुपोषित आदिवासी बच्चे

हमारे देश को आज़ाद हुए लगभग 70 साल हो गए, लेकिन आज भी गरीबी और भुखमरी इस देश की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। हम यह कहते हुए थकते नहीं कि इन सत्तर सालों में देश का चहुमुखी विकास हुआ, देश में हरित क्रांति से कई राज्यों का विकास हुआ, देश की अर्थव्यवस्था मज़बूत हुई वगैरह-वगैरह। आज भारत नई तकनीकों का प्रयोग कर विकसित देश के रूप में उभरने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इस कटु सत्य को भी स्वीकारना होगा कि कहीं ना कहीं विकास की इस दौड़ के बीच देश के लाखों-करोड़ों लोग अभाव और आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के लगभग 40% बच्चे कुपोषित हैं और दुनिया भर के कुपोषित बच्चों में से 50% बच्चे भारत में हैं। 

अगर हम भारत के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों की बात करें तो इन क्षेत्रों में बच्चों में कुपोषण और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को लेकर कई सरकारी योजनाएं चल रही हैं। 1975 में समेकित बाल विकास योजना (Integrated Child Development Services या ICDS) की शुरुआत हुई थी जिसे ‘आंगनबाड़ी’ के नाम से भी जाना जाता है। बच्चे देश का भविष्य होते हैं, लेकिन भूखे और कुपोषित बच्चों के दम पर एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण सम्भव नहीं है।

इसी को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने 02 अक्टूबर 1975 को समेकित बाल विकास योजनाओं की शुरुआत की थी। आज देश के दूर-दराज़ के क्षेत्रों और ग्रामीण इलाकों में कोई सरकारी, राजनीतिक या सामाजिक प्रतिनिधि आपको मिले या ना मिले लेकिन ‘आंगनबाड़ी केंद्र’ ज़रूर मिलेंगे। आंगनबाड़ी का संचालन करने वाली एक संचालिका और एक सहायिका के हाथों में देश का भविष्य होता है, लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं सरकारी लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण इस तरह की योजनाएं अभी भी अपने लक्ष्य से कोसों दूर हैं।

लगभग चालीस सालों से आंगनबाड़ी ने कई उतार-चढ़ाव देखें है। कुछ रिपोर्ट्स में इन योजनाओं की तारीफ हुई तो वहीं कुछ में इन्हें बच्चों में कुपोषण को रोकने में पूरी तरह से नाकाम बताया गया।

मध्यप्रदेश के खंडवा ज़िले के ‘कुरकू’ जनजाति क्षेत्र में वर्ष 2010 में बड़ी संख्या में छोटे बच्चों की मौत कुपोषण से हुई। ग्रामीणों का मानना था कि यह मौत किसी ‘दैवीय प्रकोप’ के कारण हुई। लेकिन जब आंगनबाड़ी के कुछ सुपरवाइज़रों ने ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर इन मौतों की जांच की तो पता चला कि उन गांवों में ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। गांवों के किसी भी घर में 1 या 2 किलो से ज़्यादा अनाज नहीं पाया गया। ‘कुरकू’ जनजाति बहुल क्षेत्र में बच्चों के मौत के बाद महिला और बाल विकास विभाग और स्वास्थ्य विभाग के माध्यम से इन क्षेत्रों में युद्धस्तर पर कार्य शुरू किया गया।

राष्ट्रीय स्तर पर अगर देखें तो ‘आंगनबाड़ी’ की स्थिति बहुत बेहतर दिखती है। एक ‘आंगनबाड़ी’ में 0 से 5 वर्ष के 35 बच्चे और 3 से 6 वर्ष के 29 बच्चे होते हैं। सरकार की गाइडलाइन में हर आंगनबाड़ी में अधिकतम 40 बच्चों की बात कही गई है, लेकिन मध्यप्रदेश के खंडवा ज़िले की ‘कुरकु जनजाति’ की स्थिति बदहाल नज़र आती है। सांवलीखेड़ा की एक आंगनबाड़ी सुपरवाइज़र निर्मला कर्मा के मुताबिक उनके अंडर 24 आंगनबाड़ियां हैं और हर आंगनबाड़ी में बच्चों की संख्या 100 से भी ज़्यादा है।

समेकित बाल विकास योजना कार्यक्रम पूरी तरह से सफल नहीं होने का कारण साफ है। ICDS से बेहतर बदलाव तभी आ पाएगा जब एक आंगनबाड़ी में कम से कम एक संचालिका और दो सहायिकाओं को नियुक्त किया जाएगा। वर्तमान में सारा काम एक ही कार्यकर्ता पर निर्भर रहता है, बच्चों को पोलियो ड्रॉप पिलाना, कुपोषित बच्चों को NRC (Nutrition Rehabilitation Center) केंद्र ले जाना ये सारे काम एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ही करती है। साथ ही कई तरह के सरकारी डेटा संग्रह की ज़िम्मेदारी भी आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को दे दी जाती है जो उचित नहीं है, जैसे वोटर लिस्ट सर्वे, आधार सर्वे, या जनगणना सर्वे आदि।

इन अतिरिक्त कार्यों का असर उनकी कार्यक्षमता पर पड़ना ज़ाहिर सी बात है। जितनी उनकी तनख्वाह नहीं होती उससे ज़्यादा उनसे कार्य कराए जाते हैं जो ठीक नहीं है।

देश के कई राज्यों के आंगनबाड़ी कार्यकर्ता लम्बे समय से तनख्वाह बढ़ाने की मांग राज्य सरकारों से कर रहे हैं। उनकी शिकायत है कि कई बार महीनों और सालों तक उनको तनख्वाह समय पर नहीं दी जाती है, फिर ऐसे में कैसे ICDS सफल हो सकता है।

इस तरह के हालात देखकर ज़मीनी हकीकत समझ में आती है कि भारत के ग्रामीण इलाकों और खासकर जनजाति क्षेत्रों में बच्चों में कुपोषण के क्या कारण हैं, इसलिये राज्य सरकारों को इस तरह के कार्यक्रमों में बड़े बदलाव करने की ज़रूरत है।

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