‘छुआछूत’ जातिवाद की अंतिम सज़ा है, सामान्य तौर पर सामाजिक विज्ञान के संस्थानों एवं मीडिया में इस बारे में बहस होती रहती है। यह आज उतना ही संवेदनशील विषय है जितना डॉ. अंबेडकर छोड़कर गए थे।
हर दलित के साथ नहीं परन्तु देश के कई हिस्सों में यह प्रथा आज भी हमारी कथित ‘महान’ संस्कृति और सभ्यता का अंग है जिसे ‘निचली’ जातियों के लोग स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं। जहां एक मानव का दूसरे मानव को स्पर्श करना मात्र ही अपराध है।
उनके घर भी गांव के एक अलग हिस्से में होते हैं और रोटी-बेटी के व्यवहार पर भी पूर्णतया पाबंदी होती है। लेकिन विविधताओं के देश भारत में छुआछूत से परे एक अलग किस्म का जातिवाद है जो आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए एक विशेष समुदाय को उसकी तथाकथित औकात में ही सीमित कर देता है। इस नव-ब्राह्मणवाद में रोटी-बेटी के व्यवहार से लेकर छुआछूत तक की कुप्रथा का तो उच्च वर्ग विरोध करता है लेकिन दलितों और आदिवासियों के सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर पीछे हट जाता है।
समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास के “विसंस्कृतिकरण” के विचार के अनुसार जब उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग के लोगो की प्रथाएं एवं कार्यकलाप अपनाने लग जाते है तब यह स्थिति पनपती है। भारतीय संविधान में सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था है जो कि काफी हद तक दलितों के उथ्थान में सहायक है। देश में 17-18 % दलित वोट होने से राजनीतिक पार्टियां तो इस पर अपनी राय रखने तक से मुकरती रहती है, लेकिन ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न संगठन सरेआम आरक्षण का विरोध करते हैं। वे लोग केवल छुआछूत को ही जातिवाद का पैरामीटर मानते है एवं अन्य सभी कार्यो में दलितों के पिछड़ेपन को उनकी व्यक्तिगत कमज़ोरी मानते हैं।
सामान्य दैनिक व्यवहार में आज भी दलित पर जन्म का कलंक लगा रहता है और उसे मुख्य समाज का हिस्सा बनने के लिए ब्राह्मणवाद के साथ समझौता करना होता है। अनेक विचारक इस तर्क पर बहुत ज़ोर लगाते है कि आज़ादी के 70 साल बाद के दलितों की स्थिति उनकी इच्छा के अनुसार है, लेकिन धरातल पर जनसंख्या के आंकड़ों गौर करें तो यह साबित हो जाएगा कि न केवल दलित वर्ग की जनसंख्या बढ़ी है बल्कि उनका शोषण करने वाले ब्रह्मवादियों की संख्या भी बढ़ी है।
पहले जहा गांव में दो ब्राह्मण दो दलितों के साथ जाति का भेद करते थे वहीं आज 15 ब्राह्मण 15 दलितों के साथ दुर्वव्हार करते हैं। एक दलित को यह कहकर हतोत्साहित किया जाता है कि, तेरा चयन तो आरक्षण से हो ही जाएगा या फिर किसी परिणाम के बाद उसकी योग्यता न देखते हुए आरक्षण को चयन का कारण माना जाता है। किसी दलित को मंदिर में पुजारी बनाए जाने की खबर अखबार में इस कदर आती है कि मानो दलितों पर ब्राह्मण ने कितना ही बड़ा एहसान किया हो। राजस्थान में एक तरफ जहा राजपूतों द्वारा अंधाधुंध जातिवाद खेला जा रहा है, वहीं पंजाब में सिख धर्म में जाट ब्राह्मणों का किरदार निभा रहे हैं।
अब तो यह कहकर भी दलितों का मज़ाक उड़ाया जाता है कि अब तो राष्ट्रपति भी इनका है। इस तरह से देखें तो दलित को किसी न किसी बहाने उसकी ‘पहचान’ बता ही दी जाती है, जिससे वह शर्मिंदा हो जाए।
आज के ये कथित ‘आदर्शवादी’ नेता और लोग आरक्षण को तो हटाना चाहता हैं, लेकिन जाति को नहीं। संसद में 60 से ज़्यादा सासंद दलित हैं, लेकिन एक भी दलितों की आवाज़ नहीं है, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणवाद से समझौता कर लिया है। यह जातिवाद का छिपा हुआ हिस्सा है जिसे शायद किसी ने नहीं छूआ होगा कि दलित स्टूडेंट्स के बीच यह विचार डाला जाता है कि तुम्हारे इतने MP हैं, राष्ट्रपति है फिर भी तुम्हारा कुछ नहीं हो सका तो फिर तुम पढ़-लिख कर क्या ही कर लोगे? आज शराब का सेवन हर जाति-वर्ग का आदमी करता है लेकिन जब एक दलित शराब पीकर आता है तो कहा जाता है तो कहा जाता है कि इनका तो यही काम है। इस परिदृश्य के चलते दलित राजनीति में सभी दलितों की भागीदारी नहीं दिख रही।
एक अन्य पहलु पर गौर किया जाए तो यह सवाल मन में होगा कि क्या मायावती ने दलितों के उत्थान में इसलिए कमी रखी ताकि उनका वोटबैंक बना रहे? क्योंकि सामान्य तौर पर आर्थिक सम्पन्नता से परिपूर्ण दलित ब्राह्मणवादी बना दिया जाता है और उसके अंदर भी छोटे-बड़े की भावना डाल दी जाती है। गुजरात के ऊना कांड और रोहित वेमुला की घटना के बाद दलित, खास तौर पर स्टूडेंट और युवा बहुत सक्रिय हुए हैं, इन्ही का परिणाम है कि आज वामपंथी और अन्य दल दलित विचारों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं। गुजरात में जिग्नेश मेवानी और भीम आर्मी के चंद्रशेखर इन्ही घटनाओं से उभरे लोग हैं जो गैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि से आने के बाद भी अब तक के संघर्षो में सफल रहे हैं। हालांकि बुद्धिमत्ता और सक्रियता का साथ आना अभी बाकी है।
यह केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि दलित व्यक्ति यह कहकर नेता चुना जाता है कि मैं दलित हूं, और मुझे दलित वोट तो मिल ही जाएगा, अब मुझे अन्य जातियों के वोट लेने हैं। इस विचार से वह दलित प्रतिनिधि ब्राह्मणवाद का ही शिकार होता है। डॉ. अंबेडकर का दलितों हेतु पृथक निर्वाचन का विचार इसी भाव का पुरज़ोर विरोध करते हुए ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहता था जिसमे एक दलित नेता को सिर्फ दलित ही चुने।
यह समझना ज़रूरी है कि केवल छुआछूत या पानी न मिलना ही जातिवाद नहीं है।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है की जैसे एक किसान के पास आत्महत्या अंतिम विकल्प होता है, उससे पहले बच्चों की पढ़ाई, शादी, भोजन, सामाजिक न्याय और आगामी फसल का नियोजन में आने वाली तकलीफें आदि मुद्दे इसी अंतिम विकल्प तक पहुँचने के विभिन्न चरण हैं। इसी तरह एक दलित हर धर्म और हर स्थान पर शोषित किया जा रहा है इसका रूप अलग-अलग हो सकता है, लेकिन जातिवाद और पितृसत्ता के ज़हर में अभी तक उतना ही प्रभाव है। .