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रुई का बोझ: ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर अकेले पड़ते बुज़ुर्गों की मार्मिक कहानी

आज संयुक्त परिवार और उससे जुड़ी मान्यताओं में तेज़ी से विघटन हो रहा है। एकल परिवारों के दौर में बूढ़े-बुज़ुर्गों को बोझ समझने वालों की कमी नहीं। बुज़ुर्गों की सच्चे मन से सेवा करने वाले भी हैं, लेकिन इनका प्रतिशत बहुत कम है। मां-बाप की संपत्ति पर तो सब हक जताते हैं, लेकिन एक बार ये मकसद हल हो जाए तो फिर वो दोनों बोझ नज़र आने लगते हैं। ये सब भुला दिया जाता है कि बचपन में कितनी मुसीबतें उठाकर मां-बाप बच्चों की परवरिश करते हैं।

फिल्मकार सुभाष अग्रवाल ने ऐसे ही एक परिवार में द्वंद से गुज़र रहे एक बूढ़े बाप ‘किशुन शाह’ की कथा पर सम्वेदनशील फिल्म बनाई थी।  आपकी फिल्म ‘रूई का बोझ’ चंद्रकिशोर जायसवाल के उपन्यास ‘गवाह गैर हाज़िर’ पर आधारित थी। सुभाष की यह फिल्म NFDC के सहयोग से बनी थी। पकंज कपूर, रीमा लागू और रघुवीर यादव फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे। 

परिवार में भाई-भाई प्यार के साथ रहते हैं। अक्सर बड़े भाई छोटों के लिए खूब बलिदान करते हैं। छोटे भाई भी बड़े भाई का पितातुल्य सम्मान करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे परिवार में भाइयों की शादियां होती जाती हैं, तस्वीर बदलती जाती है। खुदगर्ज़ी के फेर में रिश्तों में दीवार खिंचनी शुरू हो जाती है। स्वार्थ हेतु शह और मात का खेल शुरू हो जाता है।

रोज़ घर में ऐसी खिचखिच शुरू हो जाती है कि घर के सबसे बड़े सदस्य यानि पिता (पंकज कपूर) ने निर्णय लिया कि वो अपनी संपत्ति का बंटवारा कर देंगे। सब अलग-अलग रहें, एक-दूसरे की ज़िंदगी में किसी का दखल नही होगा और घर में शांति हो जाएगी। बंटवारा हो जाता है लेकिन पिता कौन से बेटे के साथ रहेंगे? यह तय होना अभी बाकी था, पिता ने लड़कों को यह तय करने को कहा। अगले दिन पिता बेटों से पूछता है कि उन्होंने उसके बारे में क्या फैसला किया? इस पर बड़े व मंझले लड़के कहते हैं कि सबसे छोटे भाई को आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी, इसलिए पिताजी छोटे के साथ रहें।

इसके बाद किशुनशाह, छोटे लड़के रामशरण (रघुवीर यादव) के साथ ही रहने लगे। ज़मीन का मात्र एक टुकड़ा अपने लिए रखने के अलावा सारी संपत्ति बेटों में बांटकर वो स्वयं को निश्चिंत समझते हैं। शुरू के कुछ दिन तो सब ठीक चला लेकिन जल्द ही मामला बिगड़ने लगता है। किशुनशाह के पुराने  दोस्त कभी-कभार मिलने आते तो वो बहू से चाय के लिए कहते। जवाब मिलता है कि घर में दूध खत्म है, चाय नहीं बन सकती।

असहाय किशुन मन मसोसकर ही रह जाते हैं, लेकिन तब दोस्त समझाता है कि बूढ़ा बाप रूई के गट्ठर समान होता है, शुरू में उसका बोझ नहीं महसूस होता, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ रुई भीगकर बोझिल होने लगती है। इस पड़ाव पर हर बेटा अपने बाप को बोझ बना देता है।

जब आप फिल्म को बाप एवं बेटे दोनों के नज़रिए से देखेंगे तो किशुनशाह जैसे बेशुमार बुज़ुर्गों की पीड़ा समझ आएगी। आप को मां-बाप को पहुंचाई मामूली दिखने वाली ठेसों का खयाल आएगा। रामशरण के पिता के प्रति बदलते व्यवहार में लोग अपने विघटन क्रम का आंकलन कर पाएंगे। सुभाष अग्रवाल की यह फिल्म पिता-पुत्र के रिश्तों पर करीबी नज़र रखे हुए है। किशुनशाह अपना सब कुछ बच्चों को देकर उनके मोहताज बन जाते हैं। लेकिन संतान को पिता की इस कुर्बानी को समझने का नज़रिया ही कहां! स्वार्थ आदमी को आंख वाला अंधा बना देता है।

हर चीज़ के लिए बेटे पर आश्रित हो चुके किशुन, रामशरण से नए कुर्ते के लिए कहते हैं लेकिन वो अनसुना रह जाता है। कुर्ता तो नहीं मिला, हां बहू की तीखी बोली ने बुज़ुर्ग को अकेला ज़रूर कर दिया। बेटा-बहू को किशुनशाह ने सीधे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन यह खीझ कहीं तो निकलनी ही थी जो कुछ इस तरह से थी, “मैं बूढ़ा हूं इसलिए सही खा-पी नहीं सकता, सही कपड़े नहीं पहन सकता। क्या इस दुनिया में अकेला हूं जो बूढ़ा हुआ? क्या तुम सब कभी बूढ़े नहीं होगे?”

पंकज कपूर ने किशुन में एक मजबूर बुज़ुर्ग के हाशिए व पीड़ा को पूरे मर्म से निभाया। जिस स्तर का वह अभिनय कर गए उससे यही मालूम पड़ता है कि वाकई किशुनशाह कोई और नहीं बल्कि वही हैं। पटकथा एवम सम्वाद के अनुरूप स्वयं को ढालने में पंकज को महारत हासिल है। अधेड़ ग्रामीण किरदारों को बहुत मेहनत से अदा करने में पंकज की शायद कोई बराबरी नहीं कर सकता। यही वज़ह होगी जिससे उन्हें ‘नीम का पेड़’ एवं ‘तहरीर मुंशी प्रेमचंद’ में मुख्य भूमिकाएं मिली।

पंकज के निभाए किरदार किशुनशाह के अन्तर्द्वन्द की गूंज घर जाकर भी याद रहती है, उनका किरदार बड़ी देर तक साथ रहता है। किशुनशाह के अनुभव के ज़रिए फिल्म कह गई कि बूढ़ों के लिए कोई मौसम अच्छा नहीं होता। सारे मौसम उनके दुश्मन होते हैं और जब मौसम भी तकलीफदेह हो जाए तो फिर हमें समझ लेना चाहिए कि बुज़ुर्गों की तकलीफ बयान नहीं की जा सकती। सुभाष अग्रवाल ने यह फिल्म बड़ी नेक नियति से बनाई होगी, क्योंकि बुज़ुर्ग लोग अक्सर सक्रिय समाज के हाशिए पर ही नज़र आते हैं। उनकी कहानी फ्रेम में महत्व नहीं पाती, उन्हेंं अक्सर अकेला छोड़ दिया जाता है।

फिल्मकार जिस एहसास और ज़िम्मेदारी के साथ फिल्म के लिए कमिट हुए, वो फिल्म में शिद्दत से अभिव्यक्त हुई है। बहरहाल जब किशुनशाह को बेटे-बहू का बेगानापन एकदम तकलीफ देने लगा तो वो घर छोड़ने को मजबूर हो गए। किशुन इस तक क्यों पहुंचे? क्या रही होगी एक बुज़ुर्ग की अनुभव यात्रा? फिल्म ‘रूई का बोझ’ इसका क्रमवार खुलासा बारीकी से करती जाती है।

किशुनशाह जैसे बुज़ुर्गों के साथ परेशानी द्वंद की रहती है। उनका घर से ताल्लुक मोह से अधिक जीवन-मरण का मसला हो जाता है। गृहस्थी छोड़ने का कठिन निर्णय खुद को समझाने से कठिन हुआ करता है। गृहस्थी में रहते आए आदमी के लिए एक झटके में सारे नाते तोड़ लेना आसान भी नहीं होता। खासकर बुज़ुर्गों को इस इम्तिहान से नहीं गुज़रने देना चाहिए। उनका वजूद अक्सर इसे सहन नहीं कर पाता।

घरवालों से अलग रहने का विचार बूढ़े मां-बाप को परेशान करने वाला होता है। लेकिन मजबूर होकर उन्हें खुद के प्रति बेहद कठोर निर्णय लेना पड़ता है। किशुन घर से आश्रम की ओर निकल तो पड़े लेकिन बीच रास्ते से लौट आएं। सब कुछ छोड़कर वो फिर से परिवार के मोह से मुक्त क्यों नहीं हो सके? वापस बेटे-बहू के पास घर क्यों लौट आएं? किशुन शाह का अन्तर्द्वन्द बाहर के सुख को स्वीकार करने की तुलना घर -परिवार के दु:ख को कुबूल करता है… ‘रूई का बोझ’ की कड़वी हकीक़त को किशुनशाह ने शायद मान लिया था।

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