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अपने आखिरी उपवास में गांधी का देश के सभी धर्मों को संदेश

बापू के आखिरी बेमियादी फाके(उपवास) के बारे में कई मिथक हैं, कई भ्रम हैं, कुछ झूठ हैं। कुछ झूठ फैलाए गए, कुछ मिथक बनाए गए, सत्तर साल बाद भी वे हमारे आसपास तैरते रहते हैं। इससे लड़ने का तरीका बहुत ही सरल है। गांधी जी को जानने और समझने के लिए गांधी जी से बेहतर कोई ज़रिया नहीं है। हालांकि, इसमें उनके चंद नज़दीक के साथी भी बहुत मददगार होते हैं। इसलिए गांधी जी के बारे में जानने के लिए बिना किसी तीसरे की मदद के सीधे उनकी बातों/कामों को देखना ज़रूरी है।  

गांधी जी अपनी प्रार्थना सभाओं में ‘ज्ञान’ नहीं देते हैं, किसी तरह के सिद्धांत की रचना नहीं करते हैं। वे शब्दजाल नहीं बुनते हैं, वे भाषा ज्ञान का ‘चमत्कार’ दिखाने की कोशि‍श भी नहीं करते हैं। वे तो भारतीय इतिहास के सबसे कठिन मोड़ पर हिंसा के उस दौर में बहुत सहज और साफ अंदाज़ में लोगों की आंखों में आंखें डालकर गुफ्तगू करते हैं, इस गुफ्तगू में कोई बरी नहीं।

आइए, हम उस फाके के बारे में गांधी जी के मुंह से ही कुछ और जानते हैं। 13 जनवरी, 1948, 11 बजे फाका शुरू हो चुका है। गांधी जी इसके बारे में कुछ और बताने के लिए प्रार्थना सभा में लोगों से मुखातिब हैं।

मुसलमानों के लिए उपवास?

राजधानी दिल्ली में हिंसा के शि‍कार सबसे ज़्यादा मुसलमान थे, इसलिए कई बार यह लगता है कि यह उपवास महज़ मुसलमानों के लिए ही था। मगर क्या महज़ ऐसा ही है? हालांकि, गांधी जी एक दिन पहले भी इस पर रौशनी डाल चुके थे और आगे भी वह इस मुद्दे पर बोलते हैं। उपवास शुरू होने के बाद वे प्रार्थना सभा लोगों से मुखातिब हैं- ‘मैंने उपवास किया तो है, लेकिन कई पूछते हैं कि आप क्या कर रहे हैं? मुसलमान ने गुनाह किया, हिन्दू ने गुनाह किया या सिख ने गुनाह किया? किसने गुनाह किया? फाका कब तक चलने वाला है? पूछते हैं कि क्या इल्ज़ाम हम पर है, मैं कहता हूं कि इल्ज़ाम किसी पर नहीं है। मैं इल्ज़ाम लगानेवाला कौन हूं? हां, हम गुनाहगार बन गए हैं लेकिन कोई एक आदमी गुनाहगार थोड़ा है! हिन्दू मुसलमान को हटाते हैं तो अपने धर्म का पालन नहीं करते और आज तो हिन्दू और सिख दोनों साथ करते हैं। लेकिन मैं सब हिन्दुओं या सब सिखों पर भी इल्ज़ाम नहीं लगाता हूं, क्योंकि सबने थोड़े किया.

फिर वे मुसलमान वाले सवाल पर लौटते हैं और जो कहते हैं, वह बहुत साफ़ है-   

‘तो मुझसे पूछते हैं कि इसका मतलब यह हुआ कि तुम मुसलमान भाई के लिए करते हो? ठीक कहते हैं, मैं कबूल करता हूं कि मैंने उनके लिए तो किया?क्यों? क्योंकि आज मुसलमान यहां तेज़ी (हिम्मत/हौसला) खो बैठे हैं- हुकूमत का एक किस्म का सहारा था कि इतनी जगह मुसलमानों की है, मुस्ल‍िम लीग की भी यहां चलती है, वह अब रही नहीं। लीग ने दो टुकड़े करवा दिए, इसलिए दो हिस्से बन गए, इसके बाद भी मुसलमान यहां रहते हैं। मेरा तो हमेशा ऐसा मत रहा है कि जो थोड़े रहते हैं, उनकी मदद की जाए। ऐसा करना मनुष्य-मात्र का धर्म है।’  

यानी फाका महज़ मुसलमानों के लिए नहीं है, इसके केन्द्र में हर उस समूह की हिफाज़त का मुद्दा है, जो ‘थोड़े’ हैं, कमज़ोर हैं, हर तरह की ताकत से महरूम हैं।

वे साफ करते हैं कि ये बातें वे मुसलमानों या किसी और की खुशामद करने के लिए नहीं कह रहे हैं, बल्क‍ि इसलिए कह रहे हैं क्योंकि ‘मैं ईश्वर का गुनाहगार नहीं बनना चाहता।

उपवास के बारे में गांधी जी की उसी दिन अपने एक सिख मित्र से बातचीत का हवाला मिलता है। गांधी जी उनसे भी जो बात कहते हैं, वह फाके के बड़े मकसद को बताता है। बकौल गांधी जी, ”मेरा उपवास यद्यपि खासतौर पर किसी एक दल, समूह अथवा व्यक्ति के खिलाफ नहीं है, फिर भी कोई इससे अलग भी नहीं है। यह सब की अंतरात्मा को सम्बोधित है, यहां तक कि दूसरे देश (पाकिस्तान) की बहुसंख्यक जाति (मुसलमानों) को भी। यदि एक भी वर्ग इसके जवाब में पूरी तरह कार्रवाई करे तो मुझे विश्वास है चमत्कार हो जाएगा। उदाहरण के लिए यदि सब सिख एक होकर मेरी अपील का जवाब दें तो मैं पूरी तरह संतुष्ट हो जाऊंगा। पंजाब जाकर उनके बीच रहूंगा क्योंकि सिख बहादुर कौम है। मैं जानता हूं कि वे बहादुरों की, अहिंसा की ऐसी मिसाल बन कर सकते हैं, जो बाकी लोगों के लिए शिक्षा का विषय होगा।”

मुसलमानों पर ज़बरदस्त ज़िम्मेदारी है

गांधी जी प्रार्थना सभा में मुसलमानों से मुखातिब होते हैं। बहुत साफ अल्फाज़ में कहते हैं-

मुसलमान को भी शुद्ध बनना है और यहां रहना है। मैंने मुसलमानों के नाम से उपवास शुरू किया है, इसलिए उनके सिर पर ज़बरदस्त ज़िम्मेदारी आती है। उनको यह समझना है कि हम हिन्दूसिख के साथ भाईभाई बनकर रहना चाहते हैं, इसी यूनियन के हैं, पाकिस्तान के नहीं, इसके वफादार बनकर रहना चाहते हैं। मैं यह नहीं पूछता कि आप वफादार हैं या नहीं? पूछ कर क्या करना है? मैं तो कामों से देखता हूं।

मगर वे एक अहम बात कहते हैं ‘देश के हिस्से हो गए- उसके दिल के हिस्से हो गए, उसमें मुसलमानों ने भी गलती की, सब गलती उन्हीं की थी, ऐसी बात नहीं है। सिख, हिन्दू, मुसलमानतीनों गुनाहगार थे। अब तीनों गुनहगारों को दोस्त बनना है।’ और यह बात फिर फाके के बड़े मक़सद की ओर ध्यान दिलाता है। यह मकसद दिल्ली के दायरे तक सिमटी नहीं है।

सरदार ने किया क्या, यह बताओ…

मुसलमानों को सरदार वल्लभभाई पटेल से शि‍कायतें थीं, गांधी जी तक ये शिकायतें पहुं चाई गई थीं। गांधी जी उपवास के पहले ही दिन इस मुद्दे पर खुली चर्चा करते हैं।गांधी जी को अगर मुसलमानों की खुशामद करनी होती तो वे उपवास के पहले दिन इस पर शायद लम्बी बातचीत नहीं करते। गांधी जी मज़बूती के साथ अपने पुराने साथी सरदार के हक में खड़े रहते हैं। वे मुसलमानों से दो टूक कहते हैं किसब अच्छे हैं, सरदार अच्छे नहीं हैं, तो मैं मुसलमानों से कहूँगा कि मुसलमान ऐसा कहेंगे तो कोई बात चलनी नहीं है, क्यों नहीं? क्योंकि आपका हाकिम वह मंत्रिमंडल है, हुकूमत में अकेला सरदार है और जवाहर है। वे आप के नौकर हैं, उन्होंने यह बात कही, वह बात कही, लेकिन उन्होंने किया क्या, यह बताओ, सरदार जो कुछ करता है, उसकी सारी हुकूमत जवाबदार है।  

मुसलमान ऐसे बनें

तो इस बदली हुई सूरत में मुसलमान क्या करें? फाके पर जा रहे गांधी जी मुसलमानों को तल्ख हकीकत का सामना करने की सलाह देते हैं। साथ ही मजबूत वचन देते हैं। मगर खुशामद नहीं करते हैं, बक़ौल गांधी जी ‘इसलिए मैं कहूंगा कि मुसलमानों को बहादुर, निर्भय बनना है। उसी के साथ खुदापरस्त बनना है, वे ऐसा समझें कि हमारे लिए लीग नहीं है, काँग्रेस नहीं है, गांधी नहीं है, जवाहर नहीं है, कोई नहीं है, खुदा है। उनके नाम पर हम यहां पड़े हैं। मैं चाहता हूं कि हर एक मुसलमान इस तरह का बने। हिन्दूसिख चाहे कुछ भी करते हैं, आप बुरा मानें। मैं आपके साथ हूं मैं आपके साथ मरना या ज़िंदा रहना चाहता हूं। मैं मरने की क्या कोशिश करने वाला हूं? मैं करुंगा या मरूंगा। अगर आप लोगों को साथ नहीं रख सकता हूं तो मेरा जीना निकम्मा बन जाता है। इसलिए मुसलमान पर बड़ी ज़िम्मेदारी जाती है, इसे आप भूले नहीं। ऐसी बात नहीं कि मैं मुसलमान की गलती निकालूं? क्यों न निकालूं?

क्या थोड़ेवाले नहीं रहेंगे?

हम इस बूढ़े की बातों की आज जैसे चाहें, जिस रूप में भी व्याख्या कर सकते हैं। उनकी बातों को किसी राजनीतिक-वैचारिक शब्द को ओढ़ना ओढ़ा सकते हैं। मगर उस बात की शि‍द्दत बिना गांधी के शब्दों को इस्तेमाल किए नहीं लाई जा सकती है, इतना तय है। देखि‍ए, वे दिल्ली में रह रहे और आ रहे गुस्से में भरे हिन्दू और सिखों से बेलाग कैसे पूछते हैं, ‘इतनी बहादुरी नहीं होती कि थोड़ेवालों को भी नहीं रहने दोगे। क्या मारोगे-पीटोगे- मारोगे नहीं, पीटोगे नहीं, लेकिन ऐसी हवा पैदा कर दो कि सब मुसलमान जाने को मजबूर हो पाकिस्तान जाएं, तो काम कैसे बन सकता है?

और फिर वे अहिंसा की ताकत और उससे पैदा होने वाली बहादुरी का अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं। गांधी जी कहते हैं, ‘हिन्दू-सिख को यहां तक बहादुर बनना है कि पाकिस्तान में मुसलमान चाहे जो कुछ भी करें, चाहे सभी हिन्दू और सिखों को मार डालें तो भी यहां ऐसा न हो। मैं वहां तक ज़िंदा नहीं रहना चाहता कि पाकिस्तान की नकल हो। मैं ज़िंदा रहूंगा तो सब हिन्दू-सिख को कहूंगा कि एक भी मुसलमान को न छुएं, एक भी मुसलमान को मारना बुज़दिली है। हमें तो यहां बहादुर बनना है, बुज़दिल नहीं।’

ऐसी बातों को हम आज भी कायरता के दायरे में रखते हैं, है न! गांधी जी पर एक इल्ज़ाम ‘कायर बनाने का भी तो है, क्योंकि वे ‘हिंसक/बर्बर मर्दानगी’ के कायल नहीं थे। खैर!

तो फाका कैसे छूटेगा

बक़ौल गांधी जी ‘शर्त यह है कि दिल्ली बुलंद हो जाए। अगर दिल्ली बुलंद हो जाती है तो सारे हिन्दुस्तान ही क्या, पाकिस्तान पर असर पड़ेगा।

कहीं लोगों को यह न लगे कि यह उपवास कुछ खास लोगों के लिए है और इसका बहुत तंग मकसद है, इसलिए गांधी जी कहते हैं, ‘यह आत्मशुद्धि का उपवास है तो सबको शुद्ध होना चाहिए, सबको शुद्ध होना है तो मुसलमानों को भी होना है। सबको साफ सुथरा और शुद्ध बन जाना है।

क्यों शुद्ध होना है? क्योंकि जो नया मुल्क बनना है, वह किस तरह का बनेगा, इसी शुद्धता पर निर्भर है। तो गांधी जी क्या उम्मीद कर रहे थे। बकौल गांधी जी, तो मैं यही चाहता हूं कि हिन्दू, सिख, पारसी, ईसाई, मुसलमान जो हिन्दुस्तान में पड़े हैं, यहीं रहें। हिन्दुस्तान ऐसा बने कि किसी के जान-माल को नुक़सान न पहुंचे। तब हिन्दुस्तान ऊंचा होगा।

तो यही है, गांधी जी के उस आखिरी होने वाले फाके का असली मकसद। क्या विडम्बना है, साबरमती के संत को 70 साल बाद भी अपने फाके के मकसद पर बात करनी पड़ रही है। विडम्बना ही है या कुछ और है ?  

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