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इतिहास में वर्तमान की प्रतिष्ठा ढूंढने की बेवकूफी है पद्मावत विवाद

जब भी इतिहास को आधार बनाकर कोई बात कही जाती है, कोई कला जन्म लेती है या विचार रखे जाते हैं तो अक्सर उसकी ऐतिहासिक वैधता सवालों के घेरे में आ जाती है। हमारे यहां न केवल इतिहास के बहुत से घोषित-अघोषित प्रतिनिधि हैं, बल्कि यह हमारी अस्मिता और प्रतिष्ठा से इस कदर जुड़ा है कि कई बार प्रश्न उठने लगता है कि हमारा विरोध किस चीज़ को लेकर है? इतिहास से खिलवाड़ को लेकर या अस्मिता से खिलवाड़ को लेकर?

हाल ही में पद्मावती या पद्मावत फिल्म के बहाने वो सब हुआ जो किसी सभ्य समाज की गरिमा को कुंठित कर सकता है, पर हैरानी की बात यह कि यह सब कुछ गरिमा को बचाने के नाम पर हो रहा था।

दूसरी तरफ संजय लीला भंसाली हैं, जिनके लिए इतिहास का अर्थ भव्य सेट और ऐतिहासिक किरदारों की काल्पनिक कहानियां हैं। इन सब के बीच में इतिहास प्रश्न पूछता है कि आखिर ऐतिहासिक वैधता का सवाल पूछा किससे जाए? उनसे जो इतिहास को लेकर हिंसक और प्रतिक्रियावादी है या वो जो इतिहास के नाम पर अपनी कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाते हैं? इतिहास से खिलवाड़ आखिर कर कौन रहा है- ये इतिहास का प्रश्न तो है ही, पर ये प्रश्न राष्ट्रवाद का भी है और सामाजिक पहचान का भी।

हम सब छद्म राष्ट्रवाद के बंदी हैं। राष्ट्र की ऐतिहासिक परिकल्पना, हमारी सोच के दायरे के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। हम इतिहास में भी अपने नैतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति देखते हैं या देखना चाहते हैं, इसलिए हमने इतिहास में अपने नायक और खलनायक भी निर्धारित किए हुए हैं। जो भारत को एक धर्म या समुदाय विशेष की दृष्टि से देखते हैं, वो किसी और धर्म या समुदाय को न केवल संशय की दृष्टि से देखते हैं, अपितु इतिहास और समाज के मौजूदा स्वरूप में उनकी भूमिका को या तो अनदेखा करते हैं या इस भूमिका को पतनकारी और विप्लवकारी ह्रास मानकर चलते हैं।

ऐसा करने के पीछे कई भ्रांतियां कार्य करती हैं-

पहली तो ये कि इतिहास दो विरोधी तत्वों के बीच की टकराव से बनता है, अर्थात ये कि किसी एक ऐतिहासिक पक्ष को ऊपर उठाने के लिए दूसरे का अवमूल्यित होना अति आवश्यक है। यह इस विचार को दरकिनार करता है कि इतिहास सामंजस्य, मेलजोल और संवाद से भी बनता है। ये कतई आवश्यक नहीं कि कोई एक इतिहास सर्वोपरि व दैवीय सत्य माना जाए, खासकर तब जब वो किसी एक को महिमामंडित कर किसी और को अवमूल्यित कर रहा हो।

दूसरा, हम ये समझते हैं कि इतिहास युद्धों और योद्धाओं, राजा-रजवाड़ों और अमीरों की जागीर है। ज़मीनी हकीकत पर आकर कोई उस आधारभूत मानवीय इतिहास को नहीं देखना चाहता, जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि सियासी चश्मों से वो कभी नज़र नहीं आएंगी।

तीसरा, इतिहास व्यक्तिगत या सामुदायिक अहं की तृप्ति का साधन नहीं है। जो लोग इतिहास की जड़ों में गरिमा का आधार ढूंढते हैं, वो न केवल अपने यथार्थ के साथ अन्याय करते हैं, बल्कि इतिहास के साथ भी अन्याय करते हैं। ऐतिहासिक समीकरण कभी एक से नहीं रहते और उन्हें एक सा समझना या इतिहास के पन्नो से चुन-चुनकर अपनी इच्छा और स्वार्थ के अनुसार बिंदु छांट लेना केवल व्यक्ति के अहं की तृप्ति का साधन है, इतिहास की सार्थकता का कदापि नहीं।

पद्मावती का प्रकरण हमें बताता है कि जब इतिहास आपके अस्तित्व और प्रतिष्ठा का आधार बन जाए तो उसे सरंक्षित रखने के लिए आप हिंसा का प्रयोग करने से भी बाज़ नहीं आते। क्या ये प्रतिष्ठा का प्रश्न है या आत्ममुग्धता का, जो अपने सम्मान के आगे बाकि सबको तुच्छ आंकने लगती है या उस गहरी हीन भावना का जिसके कारण हम आलोचना के संशय मात्र से भी व्यथित हो जाते हैं, हिंसक हो जाते हैं।

शायद पद्मावती प्रकरण ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी उठाता है कि आपके विरोध का स्वर कितना तीव्र होगा। यह इस पर भी निर्भर करता है कि आपका मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक ओहदा क्या है। वरना पद्मावती फिल्म जिस समुदाय को वास्तव में खलनायक साबित करने का प्रयास करती है, उसके विरोध का स्वर कहीं भी मुखर नहीं दिखता। तो क्या इतिहास वर्तमान समीकरणों का भी भुक्तभोगी है?

राजनीतिक वर्ग भी अपने-अपने नायक चुनकर अपनी जड़ों को वैचारिक और ऐतिहासिक महत्ता देने का प्रयास करते हैं। अब या तो वो उस नायक के विचारों का अनुसरण करते हैं या अधिकतर होता यह है कि आप अपनी मौजूदा विचारधारा को ऐतिहासिक नायको पर लाद देते हैं।

पद्मावती बताती है कि इतिहास पर सब अपना-अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास करते हैं। फिर चाहे वह अनगिनत सेनाएं हों, राजनीतिक दल हों, आम लोग हों या इतिहासकार। सब इतिहास को अपनी तरह समझते हैं और सब इतिहास से कुछ कण चुनकर बाकियों को निरस्त कर देते हैं।

इतिहासकार स्वयं को इतिहास का प्रतिनिधि और संरक्षक भले ही समझते हों, पर सच बात तो ये है कि इतिहास के विषय में इतिहासकारों की सबसे कम सुनी और मानी जाती है। पद्मावती प्रकरण हमें यह भी बताता है कि इतिहास जानने में किसी की रूचि नहीं है, तभी इतिहासकार केवल क्लासरूम और न पढ़े जानी वाली किताबों तक सीमित रह जाते हैं। बाकि लोगों के लिए यह एक मानने वाली चीज़ है, एक विश्वास है जिसे वो मानकर चल रहे हैं और जिसका वो केवल अनुमोदन चाहते हैं, विश्लेषण नहीं। तभी तो कहते हैं- हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां इतिहास पढ़ने के नहीं, लड़ने के काम आता है।

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