हर साल की तरह इस साल भी युवा दिवस आया और बीत गया। विवेकानंद फिर से याद किए गए, उनकी मूर्तियों पर फूल-माला चढ़ाई गई। राजनीतिक दलों ने अपने-अपने हिसाब से उनके व्यक्तित्व का बखान किया और उन्हें श्रद्धांजलि दी।
हिंदूवादी आमतौर पर उन्हें गेरुआ वस्त्र पहने हिंदू सन्यासी के फ्रेम में देखते हैं, जबकि वामपंथियों के लिए विवेकानंद कोई राष्ट्रीय व्यक्तित्व नहीं है।
लेकिन वास्तविकता इससे अलग है, मुझे लगता है कि स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता आज इतिहास के किसी भी दौर से ज़्यादा है।
उन्होंने युवाओं से आह्वान किया था- “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाए।” आज भारत का लक्ष्य हर प्रकार की विषमता को खत्म करना होना चाहिए। गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी को समाप्त करने का होना चाहिए। शिक्षित राष्ट्र बनने का होना चाहिए। दुनिया में भारत का स्वाभिमान काफी हद तक युवाओं के कंधों पर ही टिका है।
अब सवाल यह है कि युवा इस देश के मस्तक को ऊंचा कैसे करें? क्या वह विवेकानंद द्वारा बताई गई ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हैं? अगर हां तो व्यवस्था परिवर्तन के आधुनिक औज़ार क्या होंगे? ज़ाहिर है इतना बड़ा बदलाव एक और घोषणापत्र बनाने भर से नहीं आएगा, इसके लिए ज़मीन पर उतरकर संघर्ष करने की ज़रूरत होगी। विचार निर्माण के साथ-साथ सृजनात्मक काम भी करने होंगें। विरोध करने के साथ-साथ विकल्प बनकर भी उभरना होगा। युवाओं को जीवन के कुछ साल राजनीति को देकर समय के साथ न्याय करना होगा। हमें सदियों बाद पैदा हुई युवाशक्ति को बिखरने से रोकना होगा।
युवा दिवस से तीन दिन पहले 9 जनवरी को जिग्नेश मेवानी ने युवा हुंकार रैली कर युवाओं को लामबंद करने की कोशिश की। कुछ छात्र संगठनों का उन्हें समर्थन भी मिला, हालांकि संसद मार्ग पर उतने लोग नहीं जुटे, जितनी आशा थी। सोशल मीडिया को छोड़ यह रैली सुर्खियां बटोरने में भी नाकाम रही। यह घटना और हाल ही के कुछ छात्र आंदोलन बड़े सवाल खड़े करते हैं। मसलन, इक्कीसवीं सदी में युवा नेतृत्व का स्वरूप कैसा होगा? इनकी एकजुटता किन मुद्दों पर होगी? यह वर्तमान राजनीति से किस प्रकार भिन्न होगी?
वर्तमान दशा का मूल्यांकन किए बगैर कोई दिशा तय कर पाना मुश्किल होगा। इसलिये इन सब सवालों पर विचार करने से पहले हम वर्तमान को समझें। तथाकथित सबसे बड़ा छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आज के युवाओं को आकर्षित नहीं करता। यह छात्रहित से ज़्यादा संघ की सहायक इकाई और भाजपा का भोंपू बनकर रह गया है। एनएसयूआई नेतृत्वविहीन बरसाती मेंढक की तरह है जो केवल छात्र संघ चुनाव के मौसम में दिखाई देता है। वाम दलों के छात्र संगठनों में कथनी-करनी का अंतर है। ये ड्रॉइंगरूम में तो क्रांति ला सकते हैं, ज़मीन पर नहीं।
छात्र राजनीति की इन सब धुरियों से आम छात्र-छात्राएं गायब हैं। विचारधाराओं की कथित लड़ाई लड़ रहे इन छात्र संगठनों के पास छात्रों-युवाओं की रोज़मर्रा की समस्याओं से लड़ने की फुर्सत नहीं है। यही कारण है कि इनके जनाधार में एक बिंदु के बाद इजाफा नहीं होता। इन संगठनों की आम स्टूडेंट्स में पैठ का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो-तीन सालों में देश के अलग-अलग शिक्षण संस्थानों में जो स्वतःस्फूर्त छात्र आंदोलन हुए हैं, उनमें इन तथाकथित ऑल इंडिया छात्र संगठन कहलाने वालों की कोई खास भूमिका नहीं रही है।
बीएचयू, एफटीआईआई, हैदराबाद यूनिवर्सिटी, जाधवपुर यूनिवर्सिटी, डीयू, जेएनयू में एक बाद एक हुए प्रदर्शनों ने फिर से युवा राजनीति की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। आज छात्र असंतोष के स्वर, पहले से कहीं ज़्यादा मुखर हैं। पर क्या यह देश की भावी राजनीति को आकार दे पायेगा? कैंपस के भीतर होने वाले इन विरोध प्रदर्शनों को क्या शिक्षा में असमानता तथा रोज़गार के अवसर उपलब्ध न होने जैसे मुद्दों को लेकर कैंपस के बाहर युवाओं के बढ़ते असंतोष के साथ जोड़ा जा सकेगा? युवा वर्ग को वैचारिक तौर पर भारत की नई सोच के साथ भी जोड़े जाने की ज़रूरत है। आज हम युवा हैं कल जब नहीं होंगें तो भविष्य के बूढ़े भारत से उस वक्त का युवा भारत कुछ सवाल तो पूछेगा ही।
युवाओं को अगर राजनीति बदलनी है तो सबसे पहले उन्हें गैर समझौतावादी होना होगा। राजनीतिक दलों के हाथों कठपुतली बनने से बचना होगा। मुहावरे की भाषा में कहें तो युवा राजनीति को लकीर का फकीर बनने के बजाए, नई लकीर खींचने की ज़रूरत है। युवाओं की भागीदारी के बिना यथास्थिति में बदलाव की आशा बेमानी होगी।
युवाओं को राजनीति की मुख्यधारा में लाना और निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाना आज की ज़रूरत है। युवाओं को ट्रोल और भीड़ बनने के बजाय राजनीति का विकल्प बनना होगा। राजनीति को युगधर्म मानते हुए जीवन पद्धति का हिस्सा बनाना होगा और उस मार्ग पर चलना होगा। इन्हें अपने कन्धों पर राष्ट्र-राज्य के संचालन की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। अन्यथा आबादी का एक बड़ा तबका चुनाव मशीन बन कर रह गई पार्टियों के कल-पुर्जे भर बनकर रह जाएगा। वो बस ट्रोलिंग का काम करेंगे और उन्माद पैदा करेंगे, उनकी ऊर्जा, जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारों में ही ज़ाया होती रहेगी।
युवा राजनीति की सबसे बड़ी चुनौती जाति, वर्ग, समुदाय और संप्रदाय से आगे जाकर उन्हें आपस में जोड़ने की है और यह आज के घिसे पिटे राजनीतिक विमर्श से नही हो सकता।
इसके लिए नई भाषा, नए प्रतीक और नए नेतृत्व की पौध तैयार करनी होगी। 21वीं सदी के भारत में अलग-अलग तरह की चुनौतियां हैं, जिस पर युवा ही सार्थक ढंग से काम कर सकते हैं।
युवाओं का एक बड़ा तबका आज भी राजनीति से दूर है, उन्हें भी अवसर देकर साथ लाना होगा और जो युवा खुद को व्हाट्सअप फॉरवर्ड तक ही सीमित रखते हैं, उन्हें भी बताना होगा कि इसके आगे जहां और भी हैं। अगर युवा कमर कस लें और राजनीति को बदलने का फैसला कर लें तो भारत का भाग्य बदलते देर नहीं लगेगी। इस तरह से उपजे यूथक्वेक के असर को न तो मोदी न्यू इंडिया के नारों से पचा पाएंगे और न ही राहुल गांधी का यूथ कांग्रेस इससे बच पाएगा।