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शहर की तमाम आधुनिकता एक तरफ और गांव की पुआाल वाली ठंड एक तरफ

सर्दियों की ठिठुरती सुबह में दादा-दादी या नाना-नानी के साथ पुआल पर रजाई में बैठे किटकिटाते बच्चे, दांतों के इस कीर्तन के बीच बहुत कुछ सीखते थे। गिनती, पहाड़े, किस्से-कहानियां, भजन-गीत आदि।

वह पुआल वाली सुबह बहुत उर्वर होती थी, कब इन सुबहों में बोया गया बीज बड़ा पेड़ बना जाता और बच्चे अपनी परंपरा में दीक्षित हो जाते, पता ही नहीं चलता। पुआलों पर चलने वाली ये घरेलू सांस्कृतिक पाठशालाएं कब बंद हुई, इसे किसी ने नोट नहीं किया।

गांव-गिरांव में महंगे स्कूल खुल गए। अपनी-अपनी जेब के अनुसार सबके बच्चे इन स्कूलों में जाने लगे और सीखने लगे ए फॉर ऐप्पल, बी फॉर बॉल। शिक्षा का आधुनिकीकरण हुआ, जीवन बदला, जीवन स्तर बदला साथ ही जीवन को देखने का नज़रिया भी।

कल तक एक छप्पर छानने और उठाने के लिए आगे बढ़ने वाले हाथ, आज खेत की मेढ पर बोझा लिए बनिहार या किसान के बोझे को सिर पर रखवाने के लिए भी आगे नहीं बढ़ते। शाम ढलता देख अपनी-अपनी झोरी में बीज रखकर खेत में छिटवाने वाले दूसरे किसान और राहगीर रास्ते से गुज़रते वक्त ठहरकर दो गाल बात भी नहीं करते। फुर्सत किसे है भला? ज़रूरत हो तो बनिहार-मजूर लगा लो। गांव-घर, खेती-बाड़ी के तमाम सामुदायिक काम पैसे और ठेके पर होने लगे। शादी-ब्याह की तो बात अलग, अब तो मरनी-जियानी में भी हर चीज़ का रेट फिक्स होता जा रहा है। सबको अपने दाम अपने हित और अपनी ज़रूरतों से वास्ता है।

पुआल पर लोक जीवन और लोक मर्यादा का पाठ पढ़ने वाली पीढ़ियों के बच्चे, शहरों कस्बों और महानगरों में आ-बसे और वो पीढ़ियां जाड़े में हाड़ कंपाती गांवों में छूटती गई। गांव बूढ़ों और अशक्तों के बसेरे बनते गए और हम सभ्यता के विकास की नई इबारतें रचते गए। वो बूढ़े और अशक्त लोग हमारी इस सभ्यता में कोई अहमियत नहीं रखते। चमकती कारें, ऊंची इमारतें और मीनारें बस हमारी सभ्यता का दायरा यहीं शुरू हुआ और यहीं खत्म लेकिन हमने जो पीढ़ियों से अपनापन, भाईचारा और दोस्ती के पाठ पढ़े थे, उनका क्या?

अंजान शहर, अंजान लोग, निजी हित, स्वार्थ और हानि-लाभ के बीच सब बिसर गए या बिसरते जा रहे हैं। ऐसे में फिर यह उम्मीद क्यों, कि हम सामाजिक-धार्मिक भाईचारे की मिसाल पेश करें? जो पीढ़ियां बूढ़े-अशक्त स्वजनों को सुरक्षा और बेहतर जीवन नहीं दे सकती, वह सामाजिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भला कैसे लें?

सामाजिक सुरक्षा, साझेदारी या अपनापन ट्रेनिंग कैंपों में नहीं सिखाए जाते। मानवता, किसी चरित्र निर्माण कार्यशाला या शिविरों में सिखाने की चीज़ नहीं, यह तो अपने जीवन के अनुभव और परिवेश से अर्जित होती है। हमारे संयुक्त परिवारों में दादा-दादी, नाना-नानी की वो पाठशालाएं इसी संचित अनुभव का हस्तानान्तरण कर इंसान में इंसान बनने की तमीज़ पैदा करती थी।

उदारीकरण ने केवल आर्थिक ढांचे को ही नहीं बदला, बल्कि जीवन को देखने के तरीके को ही सिरे से बदल डाला। गांवों से नई पीढ़ियों का पलायन, उपभोक्तावादी सोच, संयुक्त परिवारों का टूटना, एकल परिवारों की बाढ़ और नगरों की चमक-दमक के भीतर सीमांत मज़दूरों के मलिन टापुओं का विस्तार, ये सब उदारीकरण की ही देन है। उदारीकरण ने मनुष्य की चाह तो बढ़ाई लेकिन संसाधनों को बेहद कम लोगों के बीच केन्द्रित कर मांग और पूर्ति के बीच दूरी को बढ़ाकर लोभ, असंतोष और भंगुर नैतिकता के लिए भी उर्वर ज़मीन दे दी।

कुल मिलाकर केवल पुआल वाली कड़कड़ाती ठंड ही नहीं, दादा-दादी और नाना-नानी की गोद भी छीन ली गई। अब बच्चों के खेलने की जगह घर नहीं स्कूल हो गए, उनकी भावना के सहज विकास की जगह यांत्रिक स्कूली जीवन ने ले ली। निसंदेह जीवन-परिस्थियां अच्छी हुई, लोगों के पास पहले के मुकाबले पैसा बढ़ा और महत्वाकांक्षाओं का विस्तार हुआ, लेकिन इंसानियत, सामाजिकता और भावनात्मकता के विकास के अवसर सीमित हो गए। अपने समाज, परिवेश और व्यवहार का दायरा बस खुद तक ही सीमित होकर रह गया।

90 के दशक के बाद के भारत के सामाजिक ताने-बाने, राजनीतिक प्रवृत्तियों और लोकतान्त्रिक संदर्भों को देखते वक्त इन सभी बातों को ध्यान में रखने की खास ज़रूरत है।

हरियाणा और उत्तरप्रदेश का किसान केवल पुआल नहीं फूंक रहा है, बल्कि एक सांस्कृतिक पाठशाला का बिछावन भी फूंक रहा है, क्योंकि अब उसके जीवन में पुआल की उपयोगिता कम हो गई है। अब पुआल को बचाना उसके अपने जीवन के निर्वाह के लिए महंगा हो गया है। अब उसे काटना, बटोरना और रखना इतना महंगा है कि उससे अधिक सुविधाजनक है फसल को मशीन से काटकर सूखे पुआल को जला देना।

यह सब बहुत दूर-दूर या अलग-अलग नहीं है, बल्कि सब एक-दूसरे से जुड़ा है, इन सबके केंद्र में है व्यक्तिकेन्द्रित सोच। यह सोच उत्तेजित भी जल्दी होती है, पराजित भी और हताश भी। हत्या, आत्महत्या, हिंसा, दंगे सब इसी एकाकी समाज के खिन्न मनुष्य की कारस्तानियां हैं। राजनीतिक पार्टियां या आतंकवादी संगठन आदि तो बस उसके इस एकाकीपन का उपयोग भर कर रहे हैं। भावनात्मक रूप से टूटे, बिखरे और एकांतजीवी मनुष्य से सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक दायित्व के निर्वहन की कामना एक निरा सपना भर है। और हम स्वप्नजीवी हैं, क्योंकि हम भी अपने इस एकाकीपन में इतने खोए हैं कि समाज की इस प्रवृत्ति को देखने-समझने के बजाय सिर्फ फतवे सुनाने लगे हैं।

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