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इस स्टेशन मास्टर को मुहब्बत मिली भी तो एकतरफा, वो भी चंद घंटों के लिए

मन की शंकाओं के जवाब कभी मिलते हैं और कभी नहीं मिला करते हैं। सभी उलझने या प्रश्न बेकार नहीं हुआ करते। सवाल करना चाहिए, यदि शंका मन में तरसती रहे तो फिर समय नही देखना चाहिए। इन्हीं शंकाओं और उलझनों के ताने-बाने में उलझी जॉन ओलाव स्टोक (Jon Olav Stokke) की फिल्म ‘स्टेशन मास्टर’ (Station Master) देखने लायक है।

फिल्म, पचास के दशक के एक सुदूर इंग्लिश गांव में स्थित एक रेलवे स्टेशन की कहानी है। कहानी इस सुनसान स्टेशन में कार्यरत एक अधेड़ स्टेशन मास्टर की है। फिल्म की पटकथा उसकी नीरस ज़िंदगी के एक दिन के इर्दगिर्द लिखी गई है। वो इस सुदूर जगह में पिछले दो दशकों से कार्यरत हैं।

यह आदमी एकदम इंग्लिश लोगों के मिजाज़ का था। मतलब उदास, शांत और एकांत में रहने वाला शख्स। ईश्वर से मिली किस्मत व हालात को चुपचाप मान लेने वाला आदमी। ऊपर वाले ने जिस हालात में रखा उसी हाल में रहो, उस किस्म का इंसान। स्टेशन से ही उसका छोटा सा ठिकाना सटा हुआ है। उसके मौजूदा हालात को देखकर मन में एक अधेड़ निस्वाद इंसान की तस्वीर बनती है। इस एकांत सुदूर स्टेशन पर आने-जाने वाली गाड़ियां भी गिनती की हैं।

सारी दुनिया से अलग पड़े इस स्टेशन व स्टेशन मास्टर की ज़िंदगी में इस युवती के आने से पहले तक कोई हलचल नहीं थी। एक खूबसूरत मेहमान के वहां आने से कहानी रूमानियत के खुशनुमा लम्हों में चली जाती है। एक दोपहर वो युवती वहां पहुंची, उसके आने से उजाड़ स्टेशन मास्टर की ज़िंदगी एक रोचक मोड़ लेती है। उसका आना सपने सी हसीं दुनिया का आभास दे रहा था। सपनों सी यह दुनिया उसके स्टेशन पर आकर अपनी गाड़ी का इंतज़ार कर रही थी। शायद उसे आगे जाना था…

अपनी गाड़ी के बारे में वह स्टेशन मास्टर से जानकारी लेती है तो स्टेशन मास्टर से उसे एक रूखा सपाट जवाब मिलता है, ‘अगली सुबह आएगी’। अब उस युवती के पास वहां बैठकर इंतज़ार करने का ही विकल्प था और प्लैटफॉर्म पर वह अकेली इंतज़ार करने लगती है। स्टेशन मास्टर ने उसे रात तकके लिए घर पर ठहरने का न्योता नहीं दिया था। दो दशक से भी अधिक समय अकेले गुज़ार देने से, जीवन को लेकर नीरसता और उदासीनता का भाव उसमें प्रबल था। एक तरह का सन्यास का भाव उसे ज़िंदगी के स्वाद से वंचित रखे हुए था। वो एक निस्वाद ज़िंदगी गुज़र करने का आदि सा था, लेकिन उस युवती ने उसके जीवन में आशावान लम्हों की शुरुआत कर ज़िंदगी की उम्मीदें जगा दी थी।

स्टेशन मास्टर की व्यर्थ सी दुनिया में प्रेम की हलचल दस्तक दे चुकी थी। बारिश ना आई होती तो दो ज़िंदगियां कभी न मिलने वाले रास्ते बन गए होते। बारिश ने उदास स्टेशन मास्टर को ‘ज़िंदगी’ से मिलाया था।

बारिश में अकेली इंतज़ार कर रही इस महिला से आखिर वह अपने घर चलने का आग्रह करता है। ज़िंदगी की दो राहों के मिलने का इत्तेफाक हुआ। घर में आए मेहमान के सामने वो नपा-तुला आचरण बनाकर चल रहा था। उसने सोच लिया था कि  मेहमान का दिल नहीं दुखाएगा, उस पर अपने मन की पीड़ाएं ज़ाहिर नहीं होने देगा। उथल-पुथल के इन लम्हों में दोनों के दरम्यान रात कब निकल गयी पता भी न चला। स्टेशन मास्टर के लिए यह सुबह बदला हुआ सवेरा थी। लेकिन मेहमान को आज जाना था।

वो सुबह आ चुकी थी जिसके इंतज़ार ने दो लोगों को मिलाया था। इंतज़ार जिसने दुनिया से मुक्त एक आदमी को मोह से मिला दिया था। मेहमान को स्टेशन पर विदा करने का वक्त आ चुका था। गाड़ी का वक्त हुआ, गाड़ी आई और युवती उस पर सवार हो गयी। इंजन ने आवाज़ लगाई और गाड़ी में हरकत हुई। अभी गाड़ी थोड़ी बढ़ी ही थी कि स्टेशन मास्टर ने जाने वाले से ऊंची आवाज़ में पुकारकर पूछा “क्या तुम लौटोगी?” उससे मिलकर बिछड़ने के बाद फिर से मिलने की चाहत प्रबल थी। जाने-अंजाने उसे युवती से प्यार हो गया था। गाड़ी धीरे-धीरे जा रही थी… लेकिन ना जाने क्यूं मुसाफिर को रोका नहीं उसने?

बहुत दिनों तक वो युवती की वापसी का इंतज़ार करता रहा। मेहमान ने उसके जीवन के सफर में नया मोड़ जोड़ दिया था। लेकिन शायद वो वापस नहीं आने के लिए गयी थी, अरसे तक इंतज़ार के बाद भी निराशा हाथ लगने पर स्टेशन मास्टर पहले से ज़्यादा उदासीन हो गया। हल्की सी हलचल और हसरत के बाद ज़िंदगी फिर से पुरानी हो गई। पहले से भी ज़्यादा अकेली… पुरानी दुनिया को स्वीकार करने के अलावा स्टेशन मास्टर का कोई और सहारा ना था।

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