जियो फिल्मफेयर शॉर्ट फिल्म अवार्ड्स 2018 के लिए नामांकित फिल्मों में से युवा लेखक-निर्देशक ज़ैन अनवर की ‘मेहरम’ देखी। हज यात्रा के बैकड्रॉप पर बनी ऐसी मार्मिक फिल्म का तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं था। आमना बी की कहानी कुछ ऐसा ही एहसास बनाने वाली कहानी थी।
अकेली महिलाएं एवं हज करने में पेश आनी वाली अड़चनों को यहां विषय बनाया गया है। सऊदी नियमों के मुताबिक बिना मेहरम (खून के रिश्ते वाला मर्द) के कोई महिला हज को नहीं जा सकती।
इस नियम में हालांकि 2015 में थोड़ा बदलाव किया गया, लेकिन बात जाकर घर के मर्दों से लिखित इजाज़त पर आकर रुकी और सारा मामला वहीं का वहीं। साथ ही यह नाकाफी आज़ादी भी सिर्फ 45 की उम्र पार कर चुकी महिलाओं को ही मिली।
‘मेहरम’ 50 की उम्र पार कर चुकी आमना (फरीदा जलाल) की कहानी है, सिवाए एक बेटी के आमना बी का अपना कोई रिश्तेदार नहीं। लेकिन आंखों में हज पर जाने का ख्वाब है। आमना बी ने ज़िंदगी में नाकामियां ज़्यादा देखी थी लेकिन फिर भी हज को लेकर उनके मन में फिर भी उम्मीद थी। पता नहीं अल्लाह पाक ने उन्हें हज में जाने का तसव्वुर दिल में कैसे दे दिया था। मेहरम की शक्ल में कोई न होने पर भी फ़ार्म भरने का यह हौसला कहां से आया था? एक तरह से अकेली औरत ने ‘स्थापित सत्ता’ को चुनौती दी थी।
एक तरफ ज़िंदगी भर की नाकामियां थीं तो दूसरी तरफ नई कोशिश। अब्बा नौकरियों के खिलाफ थे, नतीजतन नौकरियों के फॉर्म कबाड़ में पड़े रहें, फॉर्म तो बहुत भरें मगर नौकरी नसीब नहीं हुई। शादी हुई तो सोचा कि अब दिन बदलेंगे, लेकिन यहां भी किस्मत ने साथ न दिया। अपना रोज़गार करना चाहती थी तो शौहर ने वो भी करने नहीं दिया। आखिर में जाकर एक टेलरिंग शॉप खोली, एक-एक रुपया जोड़ कर ज़िंदगी भर की कमाई से हज के वास्ते रकम जमा की और किसी तरह पासपोर्ट-वीज़ा मिल जाए इसके खातिर हज कमेटी के चक्कर लगाने लगीं।
पासपोर्ट-वीज़ा का मसला इतना आसान भी नहीं होता जितना नज़र आता है, इसके लिए बहुत चक्कर लगाने होते हैं, फिर आमना बी का तो मामला ही अलग था। तारीख दर तारीख वो हज कमेटी के आफिस के चक्कर लगाती रहीं। पासपोर्ट अफसर अखलाक सिद्दीकी भी थे थोड़े भले आदमी सो मान गए। आमना बी के खूबसूरत रवैये ने उनका दिल बदल दिया था।
नमाज़ के पाबंद अखलाक़ से अब तक जुमे की नमाज़ नहीं छूटी थी, लेकिन एक रोज़ अपनी वाली मस्ज़िद नहीं जा सके। नमाज़ न मिलने से बड़ी तकलीफ हुई थी उन्हें, नतीजतन गुस्सा और अफसोस लाज़मी था। गुस्से में इंतज़ार की मारी आमना को गेट आउट कह दिया। लेकिन जवाब तो देखिए साहब, मुहब्बत कम पड़ जाए, “आपको शायद पता नहीं, यहीं आफ़िस के पीछे छोटी सी मस्जिद है। वहां जमात मिल जाएगी बेटा आपको।” इसी मुहब्बतपरस्ती ने अखलाक सिद्दीकी (रजित कपूर) का दिल बदल दिया, इतना कि वो नाटकीय रूप से आमना बी के घर जाकर पासपोर्ट देने चले आए।
यह दृश्य फ़िल्म को ज़बरदस्त ऊंचाई दे जाता है। पूरे प्रसंग में अच्छाई व परवरदिगार पर हमारा यकीन पुख्ता हो जाएगा। पासपोर्ट और कागज़ात तो मिल गए लेकिन क्या आमना बी हज के सफर पर जा सकी? इसके बाद जो कुछ भी आमना बी पर गुज़री, वो किसी सदमे से कम नहीं था। इक अकेली महिला के अप्रतिम दर्द के साथ एकाकार करके फ़िल्म समाप्त हो जाती है।
विषय चयन फिल्म का एक मज़बूत पहलू है, लेकिन सिर्फ़ वो ही नहीं कलाकारों की कास्टिंग भी बेहतरीन है। सुषमा सेठ, फरीदा जलाल, रजित कपूर जैसे मंझे हुए कलाकारों को एक खूबसूरत स्क्रिप्ट में देखना बेहद सुकून दे जाता है। सभी ने अपने-अपने किरदारों को बहुत खूबी से निभाया है। व्यक्तिगत स्तर पर मुझे तो पासपोर्ट आफिसर अखलाक सिद्दीकी (रजित कपूर) का किरदार बेहद खूबसूरत लगा।
आमना बी के रोल में फ़रीदा जलाल बहुत फिट नज़र आती हैं। फरीदा जलाल-रजित कपूर के रिश्ते बेहद उम्दा तरीके से फार्म लेते हैं। दोनों के संवाद एक समय में संघर्ष तो दूसरे में इंसानी मुहब्बत का जज़्बा लेकर उभरते हैं और आमना बी का किरदार तो धुरी सा था ही।
बैकग्राउंड म्यूज़िक फ़िल्म का एक और ज़बरदस्त पहलू बनके उभरा, इसके इस्तेमाल में काबिले तारीफ़ टाइम सेन्स नज़र आता है। गुरु गोविंद के बेहतरीन शबद, ‘मितर प्यारे नूं हाल मुरीदों दा कहना…’ के अलावा अमीर खुसरो के महान सूफी कलाम, ‘खबरम रसीद…’ का आना फिल्म को और मज़बूत करता है। जिस दर्दमंद नोट पर फिल्म खत्म हुई, वहां पर वहीद जफर कासमी की आवाज़ में दिल छू जाने वाली ‘नात’, ‘हम मदीने में तन्हा निकल जाएंगे…’ का बहुत उम्दा इस्तेमाल देखने को मिलता है। फिल्म से रहते हुए आप कहीं दूसरी जगह नहीं जा सकेंगे, मायने यह कि बांधे रखती है फिल्म। यह सभी पहलू ‘मेहरम’ को शार्ट फिल्म मुकाबले में मज़बूती देते हैं।