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आज के समय में प्रतिरोध का मारक सिनेमा है ‘मुक्काबाज़’

मुक्काबाज़ रिलीज़ हो गई, कल मैंने तीसरी बार देखी। पहली बार एडिट के वक्त, दूसरी बार मामी (मुंबई फिल्म फेस्टिवल) में और तीसरी बार कल। तीनों ही बार एक चीज़ जो नहीं बदली, वह थी फिल्म की मूल बात। हमारे यहां सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था दरअसल प्रतिभाओं के कत्लेआम की व्यवस्था है और यह भी कि आज देशभक्ति के नाम पर सारे धतकर्म जायज़ हो गए हैं। ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर आज खुलकर बोलने से आपकी हत्या भी हो सकती है। कई लोगों की हो भी गई है, फिर भी फिल्मी दुनिया के लोग दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री से मिलते हैं और कहते हैं कि वे मूर्ख हैं जो देश की सहिष्णुता पर सवाल उठा रहे हैं।

मेरे लिए यह बात मायने नहीं रखती कि मुक्काबाज़ खेल संस्थानों को घुन की तरह खा रही जातीय राजनीति पर आधारित है, मेरे लिए मायने रखता है जुनून से शुरू हुई फिल्म का जातीय मरघट तक पहुंचना। इस तरह मुक्काबाज़ इस समय में प्रतिरोध का मारक सिनेमा है। ताज्जुब है कि सेंसर बोर्ड की सुई हरिजन शब्द पर नहीं अटकी, न बेवक्त लगे भारत माता की जय पर अटकी। न गौहत्या के खिलाफ पैदा हुए सांप्रदायिक उन्माद को दर्ज करते हुए कैमरे पर अटकी।

सिस्टम के खिलाफ होते हुए भी सिस्टम से अपने दस्तावेज़ अप्रूव करवा सकने वाली चालाकी भी प्रतिरोध का एक उपकरण (टूल) हो सकती है।

गानों में जो शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, उससे भी यथास्थितिवादी अभिव्यक्तियों को झटका लग सकता है – लेकिन तब नहीं लगेगा जब आप कथा-वृत्तांतों में खोए रहेंगे। इंकलाब की मंशा कहानी में इस तरह छुपी हुई है, जैसे मज़बूत सीमेंट में मामूली किस्म की रेत। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि महत्वपूर्ण बातें बेलाग तरीके से नहीं कही गई और ढकी छुपी रह गई हो। ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता-ग्रंथी को फिल्म में बार-बार रेखांकित किया गया है और जब आपके कानों को यह समझ में आता है तो आपको इस विषैले वर्णवाद पर गुस्सा आता है।

क्या मुक्काबाज़ एक प्रेमकथा है? या फिर ये उत्तर भारतीय समाज की दीवारों पर पुते हुए जाति के चूने को इंसाफ के पंच (मुक्के) से झाड़ने की कथा है? या यह कथा है कि क्यों बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों से बेहतर खिलाड़ी नहीं निकल पाते? कहानी में कथ्य की कोई भी गली पकड़ें, मुक्काबाज़ आपको उस गली के आखिरी मकान तक पहुंचाने में सक्षम है। मुक्काबाज़ एक अलग लीग का सिनेमा है। यहां एक सहज समाज है, सहज संघर्ष है, सहज प्रेम है और सहज हिंसा है। गैंग्स आॅफ वासेपुर का समाज उतना सहज नहीं था और उसमें कई पीढ़ियों की गुत्थियों को सुलझाती हुई ताबड़तोड़ हिंसा थी।

अनुराग की फिल्मों की एक और खासियत है, वह दर्शकों के आई-क्यू को हर दृश्य में चुनौती देते रहे हैं। लेकिन मुक्काबाज़ की सीधी सड़क पर सब कुछ साफ-साफ दिखता है। जो हम जानते हैं और जिससे जानते हुए भी अंजाने रहते हैं, वही सब कुछ मुक्काबाज़ में है। स्थानीय राजनीति में जाति का खेल किस तरह से खुल्लमखुल्ला होता है और दक्षिण की हिंसाएं किस तरह प्रायोजित होती हैं – मुक्काबाज़ में उसे बहुत दिलेरी के साथ रेखांकित किया गया है।

यह फिल्म एक तरह से अनुराग कश्यप का नया अवतार है। उनकी किसी फिल्म ने आज तक इतनी बारीकी से सामाजिक मुद्दों को कहानियों में कैद नहीं किया है।

अपनी शैली में अनुराग जितने यथार्थवादी रहे हैं, उसमें इसकी गुंजाइश हमेशा थी लेकिन यह संयोग ही था कि उनकी बाकी फिल्में मनुष्य की मनोवैज्ञानिक चेतना के रेशों को समझने-सुलझाने में लगी रही। अच्छी बात है कि उन फिल्मों ने उन्हें स्थापित किया। मुक्काबाज़ से उन्होंने दूसरी छलांग लगाई है। एक समय के बाद साहसी फिल्मकारों को अपने कदम बढ़ा लेने चाहिए, इससे प्रयोगों की प्रासंगिकता समझ में आती है।

मैं हैरान हूं विनीत कुमार सिंह की खोज पर, विनीत इस फिल्म के मुख्य किरदार हैं। फिल्म में जब वह कमरे के भीतर या सड़क पर होते हैं, तब उतने ही साधारण होते हैं जितना कोई साधारण इंसान हो सकता है। लेकिन जब बाॅक्सिंग रिंग में होते हैं तो असाधारण मुक्केबाज़ दिखते हैं। चेहरे पर संवेदना की बेशुमार परतें उन्होंने चढ़ाई हैं, उतारी हैं। सुना है कि इस फिल्म के लिए उन्होंने लगभग साल भर तक गुमनामी में रहकर मुक्केबाज़ी की ट्रेनिंग ली। यह किरदार सुपरस्टार्स भी कर सकते थे, लेकिन उनके सिक्सपैक फिल्म की मांसपेशियों से एकमेक नहीं हो पाते। विनीत ने ऐसा किया क्योंकि वे मुक्काबाज़ की कथायात्रा के पहले राहगीर थे। वही यह कहानी लेकर अनुराग के पास गए थे और मुझे यकीन है मुक्काबाज़ उनके लिए बहुत बड़ा बदलाव साबित होगी।

श्रीधर दुबे एक और खोज हैं अनुराग की। मुक्काबाज़ में विनीत के दोस्त की भूमिका में श्रीधर दुबे प्राकृतिक अभिनय का एक ज़रूरी उदाहरण हैं। जिमी शेरगिल, साधना सिंह, रवि किशन, शक्ति कुमार, राजेश तैलंग, अभय जोशी, संजय सोनू, रुचिका घोरमरे सबने मुक्काबाज़ में अपना शत प्रतिशत दिया है। सारे के सारे किरदार बहुत स्वाभाविक और सच्चे हैं और ज़ोया हुसैन, उफ़्फ़! अनुराग ने पता नहीं कहां से इस एक्ट्रेस को खोजा है! मूक अभिनय में ज़ोया को देखते हुए पुष्पक के कमल हासन की याद आती है।

अनुराग कश्यप की फिल्म में संगीत भी कथा का हिस्सा होता रहा है और मुक्काबाज़ में भी ऐसा ही है। आधुनिक और लोकसंगीत की बहुरंगी सिल्लियों पर स्केटिंग करता हुआ यह सिनेमा जादुई लगने लगता है, जब गीतों के बोल कानों में धमाचौकड़ी मचाते हैं।

“ये प्यार नहीं है खेल प्रिय, मुश्किल है अपना मेल प्रिय” या फिर “बहुत हुआ सम्मान” और “कच्ची सुपारी में रंग नहीं बा, मुन्नी तोहरी जबानी में ढंग नहीं बा”। इस फिल्म से दो प्रतिभाशाली लोगों का करियर बाॅलीवुड में बाकायदा शुरू हो रहा है, हुसैन हैदरी और रचिता अरोड़ा। हुसैन ने मुक्काबाज़ के गाने लिखे हैं और रचिता ने गानों को सुरों में बांधा है। दोनों को मेरी शुभकामनाएं।

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