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कास्ट प्रिविलेज को नकारने वालों के लिए मस्ट वॉच है मुक्काबाज़

मुक्काबाज़, यह फिल्म अनुराग कश्यप की बनाई अब तक की सबसे ज़रूरी फिल्म है। अच्छी-खराब के मापदंडों पर भी देखें तो फिल्म काफी अच्छी है, लेकिन इसे अच्छा या खराब होने के मापदंडों से इतर देखना चाहिए। यह कहने के पीछे की वजह बस मेरा अनुराग कश्यप से अनाप-शनाप प्यार नहीं है। जो इस फिल्म के ज़रिये कश्यप ने किया है, वह चीज़ें पॉपुलर कल्चर में किए जाने का इंतज़ार कर रही थी। समाज से दूर जाता हिंदी सिनेमा पिछले कुछ सालों से मुद्दों पर वापस आने के रास्ते पर है और मुक्काबाज़ उस सफर में एक मील का पत्थर है।

यह फिल्म सही मायनों में एक बेहतरीन सोशल और पॉलिटिकल कमेंट्री है, इसे देखने के दो तरीके हो सकते हैं। पहला कि आप इस मूवी से एंटरटेन हो और उसके लिए इस फिल्म में प्रचुर मात्रा में मेटीरियल मौजूद है। खासतौर पर उत्तर भारत के छोटे शहरों से आने वाले लोगों के लिए इस फिल्म में बहुत सारी रिलेट करने वाली चीज़ें है। भदेसी डायलॉग का लेमनचूस भी है और अतरंगी टाइप के लोग भी दिखते हैं।

लेकिन यह तो आजकल हर दूसरी फिल्म में है! इन सबको हटाने के बाद जो बचता है, वही है मुक्काबाज़ की खासियत।

वह क्या है? इसके लिए आते हैं फिल्म देखने के दूसरे तरीके पर। यह फिल्म जातिवादी समाज को हूबहू दिखाने की हिम्मत और नीयत दिखाती है। जो जातिगत भेदभाव अभी तक अमीर-गरीब के भेदभाव के पीछे छुपा होता था, वह नंगे तौर पर सामने आता है। अधिकतर फिल्में “Intra-Brahmin” होती हैं, मतलब बस ब्राह्मणों या ऊंची जाति वालों के बीच की कहानियां ही होती हैं। उनसे यह नहीं पता चलता कि अलग-अलग जातियों के बीच कैसा रिश्ता होता है समाज में? उनके कैसे टकराव होते हैं? और उनमें सही-गलत कौन और क्या है? इस तरह का नैरेटिव ऐसा भ्रम पैदा करता है जैसे कि हमारा देश अब जातिविहीन है और यही नैरेटिव उस अनअवेयर (unaware) जनरेशन को पालता-पोसता है जो सच में सोचती है कि जाति पुरानी जनरेशन की ही बात है।

लोगों को, खासकर कि ऊंची जाति वालों को एक बात समझने की ज़रूरत है कि जाति के अस्तित्व को नकारने का मतलब यह नहीं है कि आप जातिवाद के खिलाफ हैं। यह तो एक तरह से जातिवाद की समस्या से मुंह मोड़ना हुआ। मुक्काबाज़ जातिगत पहचान (caste identity) को और उसकी समाज में अहमियत को सही-सही दिखाती है। ब्राह्मणों का वर्चस्व, राजपूतों की अकड़, यादवों के अंदर बदला लेने की भावना और दलितों की खुद को साबित करने की लड़ाई, यह सभी चीज़ें आपको इस फिल्म में दिखती हैं। किसी भी समस्या को हल करने का पहला कदम उस समस्या के मौजूद होने की बात को स्वीकार करना होता है।

अधिकतर लोग और खासकर वह लोग जिनको कास्ट प्रिविलेज (caste privilege) मिला हुआ है वह एक बुलबुले में रहते हैं, जहां से वह असलियत से नावाकिफ रहते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि वह अपनी जाति नहीं जानते, इसलिए वह इस जातिवादी समाज का हिस्सा नहीं है।

उनका अपनी जाति के बारे में नहीं जानना भी उनके ऊंची जाति के होने या फिर जातिगत भेदभाव का सामना ना होने के उनके प्रिविलेज की वजह से ही है।

आप जाने न जाने, माने न माने लेकिन जातिवाद है और आप भी जाने-अंजाने, चाहे-अनचाहे इस व्यवस्था का हिस्सा हैं और आपको इन चीज़ों को पहचानना होगा। अगर आपके दोस्तों में बड़ी तादाद ऊंची जाति वालों की है, तो वह कोई संयोग नहीं है। समाज की बनावट समझिए और उस समाज में खुद के स्टैंड को समझिए कि आप कितने जातिवादी हैं।

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