कल दिन भर एक से ही मैसेज मिलते रहे, अव्वल तो ये कि कई बार एक ही मैसेज अलग-अलग लोगों या ग्रुप से प्राप्त होता रहा। मतलब कुछ लोग इसे परंपरा के तौर पर ठेले जा रहे हैं और कुछ लोग उनको बिना देखे ही ‘सेम टू यू’ का बना बनाया रिप्लाई भेज दे रहे हैं। लेकिन कुछ साल पहले तक नए साल में असली भोकाल होता था ग्रीटिंग्स कार्ड का, वही जिनमें फूल-पहाड़,पत्थर-झरने या झाड़-झंकड़ बने होते थे।
हम जैसे बच्चों को तो नया साल आने से 10 रोज़ पहले ही खुजली शुरू हो जाती थी इसे लेकर। किसको कौन सा कार्ड देना है, इसे लेकर गहन मंथन किया जाता। बेस्ट फ्रेंड (अब पता नहीं क्या होता है, लेकिन बचपन में सबका होता है) के लिए महंगा वाला कार्ड, जो कई लेयर्स में खुलता और बाकी सब दोस्तों के लिए बजट का ध्यान रखते हुए कार्ड्स खरीदे जाते थे। मतलब हमारे ग्रीटिंग कार्ड्स का कॉमर्स सीधे दोस्त के साथ आपकी केमिस्ट्री पर निर्भर था।
ये एक ऐसा रिवाज़ था जो लगभग सब निभाने की कोशिश करते, वरना क्लास में आपके हीनभावना से ग्रसित होने की पूरी सम्भावना बनी रहती। भले ही “नॉउ यू डोंट गिव अ डैम… बट इन चाइल्डहुड इज़्ज़त मैटर्स।” इसीलिए घर पर उधम मचाते और घरवाले पैसा बर्बाद (क्योंकि अब ये सब बर्बादी ही लगती है) करने को मजबूर हो जाते।
सीधे मना न कर सकने पर कम से कम खर्चा हो इसलिए पापा से आपको ये सलाह ज़रूर मिलती कि दोस्तों को अपने हाथों से ग्रीटिंग कार्ड्स बनाकर दो, लेकिन हमें तो वही चाहिए होते थे- बाज़ार वाले रंगबिरंगे कार्ड्स। भले वो आर्चीज़ का न होकर किसी कमल प्रिंटर्स का ही क्यूं ना हो, इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता था। बस उनमें फूल, पत्ती, सूरज, चांद बने हों इतना ही काफी होता था। वैसे भी खरीदे गए कार्ड्स का सुरूर खुद कागज़ घिसने से ज़्यादा होता था।
फिर कार्ड्स पर लिखने का मौका आता जिसमें हम स्केच पेन या चमकीले ग्लिटर पेन से अपनी भावनाओं का गुबार उड़ेलते। ये आमतौर पर सस्ती तुकबंदी होती जिसे पहले ही हमारे बड़े भाई लोग अच्छा-ख़ासा इस्तेमाल कर चुके होते थे, पर वही लिखना हमारी मज़बूरी थी क्यूंकि तब हमारा गूगल बाबा से राब्ता नहीं हुआ था। उदाहरण के तौर पर एक सबसे फेमस पंक्ति कुछ इस तरह थी- ‘One glass water one glass beer, Oh my dear, happy new year.’ कुछ न मिले तो बस यही चिपका दो और फिर लिफाफे पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखना-
टू, फलाना ……………………………………….फ्रॉम, ढीमकाना
अगले दिन सारे बच्चे किताबों के बीच ग्रीटिंग्स कार्डस दबाए स्कूल पहुंचते और सारा दिन कार्ड के लेन-देन का यह समारोह चलता रहता। जिस दोस्त को जैसा कार्ड दिया उससे वैसा ही कार्ड पाने की पूरी इच्छा रहती और अधिकतर ये मुराद पूरी भी हो जाती थी।
इसके बाद एक एजेंट टाइप जुगाड़ ढूंढने की कवायद होती, क्योंकि अभी भी सबसे महंगा कार्ड किसी किताब में दबा होता जो किसी ‘खास’ के लिए होता था। ये खास कार्ड सीधे उस ‘खास’ को जाकर देने में बच्चे की हालत खराब हो रही होती थी, इसी कारण उस एजेंट का सहारा लिया जाता था ताकि वो कार्ड उस खासमखास तक पहुंच जाए और एक बार वो इस बच्चे को पलटकर देख भर ले।
अगर वो कार्ड उस ख़ास तक पहुंच गया और उसने पलटकर देख लिया फिर तो पता नहीं वो बच्चा सपनों के जहाज पर बैठा कब तक हवा में उड़ता ही रहता। आम तौर पर ये खास कार्ड म्यूज़िकल होता और इसमें खास भावनाएं परफ्यूम वाली स्याही से उकेरी जाती।
इस रोमांच की अनुभूति शब्दों से परे है, लेकिन असली मज़ा तब आता जब एक ही रुखसार को कार्ड समर्पित करने के लिए कई खाकसार पंक्तिबद्ध रहते और सबमें होड़ मची रहती। पता नहीं अब बच्चे ग्रीटिंग्स देते हैं कि नहीं या वो भी अब GIF या एक ही मैसेज चेपकर फील लेने की कोशिश करते हैं। खैर जो भी हो लेकिन वो ग्रीटिंग कार्ड्स का मज़ा व्हॉट्सएप्प या फेसबुक मैसेज में नहीं आता है यार।