पद्मावती पर मचे इतने शोर-शराबे के बाद मेरा भी मन बना हुआ था इस फिल्म को देखने का। इसे देखने के लिए मैं अब तक का मेरे लिए सबसे महंगा मूवी टिकट प्री बुक करा के बैठा था और टिकट का इतना महंगा होना जायज़ भी लगा। आखिर भंसाली साहब ने दीपिका की कमर ढकने में इतने स्पेशल इफेक्ट्स वालों को भी तो लगाया था, उसका दाम तो वसूलेंगे न। राजपूताना की ‘इज्ज़त’ तो दीपिका की कमर में ही थी न। खैर, टिकट की प्री बुकिंग करा के बैठा था 25 जनवरी के इंतज़ार में लेकिन फिर खबर आई कि तोड़फोड़ और आगजनी की संभावना देखते हुए पटना के सिनेमाहॉल के मालिकों ने फिल्म दिखाने से मना कर दिया।
जो लोग करणी सेना को एक फ्रिंज या छोटा संगठन कहते हैं वो ध्यान दें कि राजस्थान से सैकड़ों मील दूर बिहार के पटना में भी उतना ही खौफ है। इससे अंदाज़ा हो जाना चाहिए कि समस्या कितनी गंभीर है।
सच कहूं तो मैं संजय लीला भंसाली का फैन नहीं हूं, खासकर तो उनकी इन ‘ऐतिहासिक’ फिल्मों का तो बिल्कुल नहीं। बेशक भंसाली की फिल्मों में भव्यता और मनोरंजन होता है लेकिन मेरे लिए अच्छी फिल्मों का मतलब बस यह नहीं है। इसके अलावा उनकी पिछली फिल्म में पेशवाई का जिस तरह गुणगान करते हुए उस वक्त की सामाजिक हकीकत और पेशवा के राज में निचली जातीयों के लोगों पर होने वाले अत्याचार को नज़रंदाज़ किया गया उससे इनका ‘ब्राह्मणवादी इतिहास’ की तरफ के झुकाव और ऐतिहासिक हस्तियों की अतिशयोक्त चित्रण या ग्लोरीफिकेशन करना ज़ाहिर होता है। जहां तक ‘पद्मावत’ के ट्रेलर देखकर अंदाज़ा लगा, इस फिल्म में भी राजपूतों की किंवदंतियों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने और राजपूत समाज में औरतों की दुर्दशा के ऊपर प्रतिष्ठा और त्याग की चादर डाल के ढकने का काम किया है।
बहरहाल चूंकि मैनें फिल्म देखी नहीं है इसलिए इस फिल्म को कयासों पर जज नहीं करूंगा। इसके साथ ही, भले ही भंसाली मेरी विचारधारा और आदर्शों के विरोध में भी फिल्में क्यों न बना रहे हों, उन्हें ऐसा करने का हक हमारे देश का संविधान और किसी भी सभ्य समाज का ढांचा देता है। यही वजह रही कि इस फिल्म को राजपूत समुदाय के उग्र संगठनों द्वारा रोके जाने के सख्त खिलाफ हूं मैं।
पद्मावत का विरोध इस फिल्म के पूरा बन पाने से पहले ही शुरू हुआ था। बात सेट पर तोड़फोड़ और संजय लीला भंसाली पर शारीरिक हमले से ही शुरू हुई। उस वक्त भी ना तो राजस्थान और ना ही भारत सरकार ने राजपूतों की करणी सेना के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाये। उसके बाद इस फिल्म के ट्रेलर आते ही इस देश में एक ऐसा हंगामा फूट पड़ा जो देश की तमाम समस्याओं से ऊपर माना गया देश की मीडिया द्वारा। यहां तक कि ये मुद्दा चुनावों की गतिविधियों पर भी छाया रहा। इसी दौरान करणी सेना के गुंडे खुलेआम टीवी पर आकर भंसाली की जान लेने या दीपिका पादुकोण की नाक काटने की धमकी देते रहें। फिर भी सरकार चुप रही इसके खिलाफ।
उल्टे बीजेपी के एक नेता ने भी ऐसी ही एक धमकी दे डाली और दीपिका की नाक काटने वाले को इनाम देने की घोषणा की। फिर इन्हीं लोगों ने एक किले से किसी इंसान की लाश लटका कर फिर भंसाली को मारने की धमकी दी। अब इन लोगों को मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा की सरकारों का खुला समर्थन मिला और इन गुंडों की मांगें मानते हुए फिल्म को बैन करने का फैसला लिया गया। तब से अब तक सिनेमा हॉल जलाया गया, देश भर में अलग-अलग जगह तोड़फोड़ और आगजनी हुई, स्कूल में बच्चों के इस फिल्म के गाने पर परफॉर्म करने पर स्कूल पर हमला हुआ और अब तो गुड़गांव में बच्चों को ले जाती स्कूल बस पर इन्हीं राजपूत संगठनों का पथराव हुआ। ये सब हुआ लेकिन इतना बोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने अपने दो-दो इंटरव्यू में इसके खिलाफ एक शब्द नहीं बोला और न ही इनके खिलाफ कोई पुख्ता एक्शन लिया गया।
ऐसे माहौल को देखते हुए बरबस ही ज़हन में कुछ सप्ताह पहले की भीमा कोरेगांव की घटना याद आती है। दलितों और एक हिन्दू संगठन के बीच हुई हिंसा के बाद अपने ऊपर हुए हमलों के विरोध में दलितों के मुम्बई बंद कराने की वजह से उन पर जातिवादी होने और हिंसक होने का इल्ज़ाम लगा। तब सभी लोगों, मीडिया और सरकार का रवैया दलितों के प्रति बहुत ही आक्रामक रहा। वैसी आक्रामकता इन राजपूत समुदाय के संगठनों के खिलाफ देखने को नहीं मिल रही। कोई इनके जातिवादी और हिंसक होने की बात को खुलकर कह नहीं रहा। इससे हमारे स्टैब्लिशमेंट के दोहरे मापदंडों और जातिवादी होने का पता चल रहा है।
कुछ साल पहले के सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश में कहा गया था कि फिल्म के सेंसर से पास होने के बाद किसी राज्य का उस फिल्म को बैन करना बिल्कुल न्यायसंगत नहीं है। ये राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि वो सिनेमा घर और सिनेमा देखने जाने वालों को सुरक्षा प्रदान करे न कि किन्ही उपद्रवियों की वजह से अपने नागरिकों की आज़ादी छीन ले। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश की अवहेलना करते हुए कई बीजेपी शासित राज्यों ने फिल्म को गैर-कानूनी रूप से बैन किया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ अपील के बाद ये बैन हटाया गया।
फिर भी मैं आज पटना में ये फिल्म नहीं देख पा रहा हूं। कुछ गुंडों की वजह से नागरिकों को अपना फैसला बदलना पड़े, एक लोकतंत्र के लिए इससे शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। हमारे मुख्यमंत्री जिन्होंने खुद को ‘सुशासन बाबू’ जैसे तमगों से नवाज़ा वो आज कुछ गुंडों के सामने अपने घुटनों पर हैं। अपने नागरिकों का हक और अभिव्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक हक को वो सुरक्षित रखने में नाकामयाब हैं।
सिनेमा घरों के मालिकों का ये फैसला बताता है कि उन्हें कितना कम भरोसा रह गया है सरकार पर या फिर वो जानते हैं कि इन गुंडों को बिहार की सत्ता पर काबिज़ दूसरी पार्टी का संरक्षण मिला हुआ है। नीतीश कुमार अपने नागरिकों को सुरक्षा की गारंटी न दिलाकर अपने स्पाइनलेस होने का सबूत दे रहे हैं। बिहार की कानून व्यवस्था की लचर हालात का पता इससे चल रहा है कि वो कैसे एक छोटे से काम के लिए भी काबिल नहीं है।
यहां बात महज़ एक फिल्म की नहीं बल्कि बात है लोकतंत्र के सिद्धांतों की रक्षा की। अब तो यही माना जायेगा कि अगर आपकी जाति ऊंची हो तो भले ही आप गलत हो या देश को क्षति पहुंच रहे हों लेकिन आपको सत्ता का संरक्षण मिलेगा। यही इस देश की हकीकत है।