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देश की सभी भाषाएं चाहती हैं कि उनका भी एक दुष्यंत हो

फिल्म ‘मसान’ में दुष्यंत कुमार की एक गज़ल की कुछ पंक्तियों के साथ प्रयोग करके जब वरुण ग्रोवर ने एक सुन्दर गीत बनाया, तब स्वाभाविक रूप से इस गीत के साथ जगह-जगह दुष्यंत कुमार का ज़िक्र भी हुआ। हो सकता है कि बिल्कुल नई पीढ़ी के कई लोगों को इससे यह जानने का अवसर मिला हो कि ‘एक जंगल है तेरी आंखों में, मैं जहां राह भूल जाता हूं/ तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं’ जैसी खूबसूरत पंक्तियां दुष्यंत कुमार (1933-1975) की कलम से ही निकली हैं।

हालांकि इस बात में कोई शक नहीं है कि इस ज़िक्र के बिना भी देर-सवेर दुष्यंत के लिखे शेर हिन्दी बोलने, समझने और लिखने वाली नयी पीढ़ी तक पहुंच ही जाते। इस बात की तसल्ली करनी हो तो कहीं स्कूली बच्चों या कॉलेज के नवयुवाओं के लिए रखे गये भाषण या वाद-विवाद प्रतियोगिताओं कभी पहुंचिए। वहां तय किये गए विषय भले कुछ भी हों, इस बात की भरपूर संभावना है कि आप को वहां दुष्यंत के शेर सुनने को मिल जाएं।

अब इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि दुष्यंत की गजलों की खासियत है कि यह हमेशा नई लगती हैं। दुर्भाग्य का ज़िक्र इसलिए कि जिन परिस्थितियों ने दुष्यंत को व्यथित किया, वे सौगात के बतौर न जाने हम सब को कब तक मिलती रहेंगी। पीर के पर्वत हो जाने का यह सिलसिला न जाने कब थमेगा!

दुष्यंत के शेर विकट परिस्थितियों से जूझने का जज़्बा देते हैं। वो पीर के पर्वत को पिघलाए जाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं, बुनियाद के हिलाए जाने की ज़रूरत पर जोर देते हैं। वो आकाश के तारों के बजाय घर के अंधेरों पर ध्यान देने की बात करते हैं। वो अपने बाजुओं पर भरोसा करने की ज़रूरत पर इस तरह बल देते हैं कि कट चुके हाथों में तलवारें देखना खुद को भ्रम में रखने के अलावा कुछ भी नहीं है।

दुष्यंत असंभव को इस तरह नकारते हैं कि तबियत से उछाला गया पत्थर आसमान में भी सुराख कर सकता है और भी बहुत कुछ…

दुष्यंत की गज़लों के संकलन ‘साये में धूप’ से जब आप गुज़रेंगे, तब आपको महसूस होगा कि इस पतली सी किताब में शायद ही ऐसा कुछ हो, जो छूट गया हो! इसलिए कहा जाता है कि देश की सभी भाषाओं को बरतने वाले लोग चाहते हैं कि उनका भी अपना एक दुष्यंत हो!

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