डियर गणतंत्र कैसे हो ?
आज तुम्हारा हैप्पी बर्थ डे है यानि भारत का गणतंत्र दिवस। आज़ादी के बाद जब भारत अलग-अलग समस्याओं से जूझ रहा था तो तुम्हारी ज़रूरत महसूस हुई कि एक देश ऐसे ही नहीं चल सकता, कुछ तो नियम-कानून चाहिए एक देश को चलाने के लिए। ऐसे में आज़ादी के बाद डॉ. भीम राव अम्बेडकर की अध्यक्षता में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन का वक़्त तुम्हें बनने में लगा।
गणतंत्र जहां तक मैं तुम्हें समझता हूं कि तुम एक ऐसा तंत्र हो, जो जनता के लिए बना हुआ है जिसके केंद्र में जनता है। जनता में सारे लोग तुमने शामिल किये और खुद को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया। तुम्हारी प्रस्तावना के अनुसार भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है।
तुम्हें खत लिखने को मैं मजबूर तुम्हारी प्रस्तावना पढ़ने और अपने आस-पास हो रही घटनाओं को देखने के बाद हुआ। पूरे देश में एक बवंडर मचा हुआ है एक फिल्म के बनने के दौरान से ही। शुरुआत में फिल्म का नाम ‘पद्मावती’ था जिसे बाद में ‘पद्मावत’ कर दिया गया। फ़िल्में समाज का आईना होती हैं, इस बात को मैं बचपन से सुनता आया हूं। ‘3 इडियट’ और ‘ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा’ देखकर कई लोगों की ज़िन्दगी बदलते हुए भी देखा है और इसे ही शायद आईना कहते हैं।
फिल्म के निर्माण के वक्त से ही मैं ये समझने की कोशिश कर रहा हूं कि ये कैसी फिल्म है जो बिना पूरी हुए ही एक बड़े समाज को आईना दिखा रही है और लोगों की भावनाएं बड़ी संख्या में भड़क रही हैं। अगर गणतंत्र सच में अगर जनता का तंत्र है तो क्यूं संजय लीला भंसाली को इतनी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है? और कौन हैं ये लोग जिन्हें अचानक धर्म की ठेकेदारी करने का लाइसेंस मिल गया?
मैं जानता हूं गणतंत्र, कभी भी तुम्हारा स्वर्ण काल नहीं रहा पर आज के दिनों को देख कर लगता है कि इतने बुरे हालत भी तेरे कभी नहीं रहे होंगे। हम भीड़ में बदलते जा रहे हैं, एक ऐसी भीड़ जिसमें बहुत गुस्सा है और वो सिर्फ रास्ता खोज रही है उस गुस्से को आग में बदलने के लिए।
हमारी इस अंधी भीड़ ने फिल्म के विरोध नाम पर गुडगांव में बच्चों की बस पर हमला किया, अगर इत्तेफाक से वो बस पूरी तरह से चपेट में आ जाती हो कौन जिम्मेदार होता? और कौन जिम्मेदार है उन मौतों का जो पिछले साल कुछ सालों में भीड़ ने की हैं?
इस गणतंत्र में कोई बात नहीं करना चाहता रोज़गार पर, देश के आर्थिक विकास पर, सामाजिक ढांचे पर, शिक्षा पर, स्वास्थ्य पर। चंद नेताओं के बहकावे में आकर हम मुड़ जाते हैं बसों को फूंकने, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने, लोगों को मारने।
समझ सकता हूं तुझे भी बहुत बुरा लगता होगा ये सब देखकर, पर क्या करें इस देश में नेताओं की तो भीड़ हो गयी है पर एक नेतृत्व का आभाव हो गया है। हम एक व्यक्ति को भगवान बना देते हैं और फिर वो भगवान तुम्हारे नाम पर जनता को बहलाता है, भड़काता है और अपने हिसाब से इस्तेमाल करवाता है।
इन सब के बीच कभी-कभी जब मैं कुछ युवाओं को देखता हूं पॉजिटिव काम करते हुए तो छोटी सी ही सही तेरे सही मतलब को ज़मीन पर उतरते हुए देखता हूं। मैं जानता हूं पॉजिटिव कहानियां फैलने में थोड़ा वक़्त लगता है और दुनिया में नेगिटिव कहानियां जल्दी फैलती हैं। पर जब भी मैं उन युवाओं से मिलता हूं जो अपने देश के लिए कुछ करना चाहते हैं और कर भी रहे हैं, तो तुम्हारी प्रस्तावना के अनुसार भारत के एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतांत्रिक गणराज्य होने के सपने को साकार होते देखता हूं।
हमें विचारहीन भीड़ बनने से बचना है, वरना कोई भी हमें अपने अनुसार किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकता है। क्यूंकि सपनों का देश कोई सपनों की कल्पना नहीं है, बल्कि एक सही देश की कल्पना है जिसमें सभी लोग एक संगठन की तरह देश को आगे बढ़ाने में योगदान दें न कि भीड़ बन के देश को उजाड़ने में।
मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं कि हम सोने की चिड़िया थे और हमें विदेशियों ने लूटा, पर अब लगता है माना चाहे हमें विदेशियों ने लूटा था पर हम दुबारा इसलिए सोने की चिड़िया नहीं बन पाएंगे क्यूंकि हम अपने देश की चिड़िया के पंख खुद कुचल रहे हैं।
खैर आगे क्या ही लिखूं तुझे, एक गाना भी आया था एक फिल्म का कि “सोने की चिड़िया, डेंगू-मलेरिया, गुड़ भी है गोबर भी, भारत माता की जय”
अच्छा ध्यान रखना गणतंत्र अपना …
तुम्हारा
बिमल ‘पद्मावत देखने के बाद’