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सिर्फ सिनेमाई पेशकश नहीं, एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है रिचर्ड एटेनबरो की ‘गांधी’

इस महाकाव्यात्मक फिल्म में पेश आया एक छोटा सा दृश्य आपको ‘गांधी’ फिल्म की महान क्षमता समझने में बड़ा सहायक होगा। मकबूलियत के शिखर पर खड़े महात्मा गांधी पश्चिम से आए अजनबी आगंतुक के अनुरोध पर विवाह की याद को जीवंत करते हैं। एक शांत झील के तट पर मोहनदास-कस्तूरबा, विवाह के समय ली जाने वाली कसमों को फिर से ज़िंदा कर पुराने दिनों में चले जाते हैं।

भारतीय रीति-रिवाज में पति-पत्नि के बीच जीने-मरने की कसम विवाह का एक सुंदर पक्ष होता है। रस्म के पूरा होने पर मोहनदास मुस्काते हुए कहते हैं, ‘उस वक्त हम तेरह के थे।’ मोहनदास और कस्तूरबा शादी से पहले एक दूसरे से नहीं मिले थे। कस्तूरबा के साथ सात सूत्रों में बंधने की बात फिल्म में गांधी का किरदार निभाने वाले बेन किंग्सले ने जिस अंदाज़ में कही वो याद आती है। इस खास लम्हें में हमें किरदार के मानवीय पक्षों पर पूरा विश्वास बन जाता है। कस्तूरबा के लिए एक पति की फिक्र अरसे बाद भी बरकरार नज़र आती है। वहीं कस्तूरबा का किरदार निभाने वाली रोहिणी हटंगिणी में भी पति के लिए वही भाव ज़िंदा नज़र आता है।

दशकों के महान विस्तार में डूबी इस फिल्म का शुमार दुनिया की महाकाव्यात्मक फिल्मों में किया जाता है। हज़ारों लोगों की कास्टिंग दशक युगीन विषय को भव्यता प्रदान करती है। आरंभ से लेकर अंतिम दृश्यों तक एक मानवीय धागा कहानी को संवेदना से समेटे हुए है।

रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म का कैनवास इतना भव्य है कि इसे फिर से करना किसी भी फिल्मकार के लिए एक बड़ा ख्वाब होगा। फिल्म का कैनवास इसे ‘लॉरेंस अॉफ अरेबिया’ के समकक्ष खड़ा कर जाता है। 

इससे गुज़रते हुए डॉक्टर झिवागो (Doctor Zhivago) की भी याद आती है। कहना होगा कि ‘गांधी’ विश्व सिनेमा की सर्वकालिक फिल्मों के सभी मापदंडों को पूरा करती है। अतुलनीय कैनवास को जीवंत करना, हमेशा से असंभव के निकट रहा है। बापू को एक बार फिर जीवित देखने की कामना फिल्म को आकार दे गई। महात्मा गांधी के ज़रिए भारत की कहानी बताने का संकल्प इसमें नज़र आता है।

फिल्म का बनना एटेनबरो की मुहब्बत की विजय भी थी, खुद के ड्रीम प्रोजेक्ट पर काम करना हमेशा कठिन हुआ करता है। फिल्म बनाने के लिए ज़रूरी संसाधन जुटाने के लिए उन्हें सालों संघर्ष करना पड़ा था। शीर्षक किरदार के लिए उपयुक्त अभिनेता के चयन का सिलसिला भी मुश्किल गंभीरता की मांग करता था, काफी खोजबीन बाद बेन किंग्सले को महात्मा गांधी का ड्रीम रोल दिया गया। पूरी कहानी में अभिनेता ने किरदार को पूरी तरह अपना लिया था, किंग्सले में गांधी जी का पूरा अक्स देखने को मिला था। फिल्म से गुज़रते हुए ज़्यादातर हिस्सों में एहसास होता है कि हम अपने महात्मा को देख रहे हैं। सहज-सरल-विनम्र होकर एक पावरहाउस अभिनय का दस्तावेज एटेनबरो की फिल्म में दर्ज़ है। कलाकार ने महात्मा गांधी का काफी गहन अध्ययन ज़रूर किया होगा। ज़्यादातर दृश्यों में महात्मा के व्यक्तित्व की झलक उनकी कला में नज़र आई थी।

हम समझ सकते हैं कि बापू का नैतिक आचरण किरदार को बड़ी प्रेरणा दे रहा था। फिल्म की बाकी खूबियों में आप यह नहीं भूले कि अपने ख्वाब की जीत पर भरोसा करने वाले लोग के बिना यह बन नहीं पाती। कस्तूरबा के किरदार में रोहिणी हटंगिणी का रोल भी हकीकत का अक्स नज़र आया। कहानी में उस समय के सभी बड़े जन नेताओं के साथ मझोले-छोटे किरदारों को भी असलियत की शिद्दत से सजाया गया। हज़ारों की कास्ट को इतिहास के आइने में सजाने की क्षमता फिल्मकार को महान बनाती है। लोगों में आत्मीय बनाती है।

कहानी की ओपनिंग महात्मा गांधी के जीवन में दक्षिण अफ्रीका की कथा को स्थापित करती है। वो वकालत की पढ़ाई के सिलसिले में वहां गए थे। शिक्षा-दीक्षा के दरम्यान वहां की कड़वी व अमानवीय रंगभेद नीति की वजह से उन्हें काफी ज़िल्लत उठानी पड़ी। दक्षिण अफ्रीका में उस समय किसी भी भारतीय को पूर्ण नागरिकता का अधिकार नहीं दिया जाता था, हमारे साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। तत्कालीन व्यवस्था से गांधी जी का पहला अनुभव एक अंजान का सामना था। रेलगाड़ी में सवार मोहनदास को जब बलपूर्वक बाहर फेंक दिया गया, तब शायद उन्हें रंगभेद नीति की पूरी जानकारी ना थी। उन्होंने एक ठोस अहिंसक प्रतिकार से फिर भी विरोध किया। कहानी में आगे की घटनाओं की एक तस्वीर इस दृश्य से बनती है।

‘गांधी’ सैल्युलॉयड पेशकश होने से अधिक एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ का दर्जा रखती है जो इस फ़िल्म के लिए ज़बरदस्त उपलब्धि है। इतिहास की घटनाओं से बंधन, फिल्म को विस्तृत कैनवास पर बनाने के लिए बाध्य कर गया।

ऐटनबरो ने इतिहास को स्पर्श करने में किसी पूर्वाग्रह को आने नहीं दिया, उससे भेदभाव नहीं किया। एटेनबरो ने उन्हें सुविधानुसार ढालने की कोशिश नहीं की और पूरी शिद्दत और ईमानदारी से काम किया। इस किस्म की ज़िम्मेदारी से ही ‘गांधी’ समान महान फिल्म बन सकी।

गांधी देश को उपनिवेशवाद की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए भारत चले आते हैं। मुल्क की आज़ादी की लड़ाई में शामिल होना बड़ा मकसद था। फिरंगियों को यहां से चले जाने को मजबूर कर देने की योजना में वो अनेक अनुकरणीय अहिंसक तरीके अपनाते हैं। सत्य और अहिंसा की अदभुत नीति के सामने ज़ालिमों की एक नहीं चली। बाहरी शक्तियों के साथ भीतर की कुछ ताकतें एकजुटता में थोड़ी बाधा ज़रूर बनी और विभाजन की पीड़ा से गुज़रकर हमें आज़ादी का ख्वाब मिला।

अफसोस कि देश के मुस्तकबिल का मार्गदर्शन करने वाले बापू आज़ाद भारत को ज़्यादा समय तक देख न सके। सत्य-अहिंसा के बापू को एक हिंसक अंत का दिन देखना पड़ा। एटेनबरो की यह फिल्म केवल सुखद अंत वाली कहानी नहीं, अफसोस कि अतीत बदला नहीं जा सकता। फिर भी गांधी जी की हत्या ने हमें बता दिया कि जीत अंतत: अहिंसा की ही हुई।

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