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सोशल मीडिया अब क्रांति नहीं बल्कि नफरत की लौ भड़का रहा है

सोशल मीडिया 21वीं सदी की वो घटना है जिसने दुनिया भर में लोगों और समूहों के बीच के संचार और विमर्श के तौर-तरीकों को बदलकर रख दिया है। शुरुआती दौर में इसे नवीन क्रांति के सूत्रधार के तौर पर देखा गया, ट्यूनीशिया की जैसमिन क्रांति इसी सोशल मीडिया के कारण संभव हो पाई थी। परन्तु अब सोशल मीडिया धीरे-धीरे उस दौर में पहुंच गया है जहां क्रांति की लौ नहीं, बल्कि नफरत की ज्वाला भड़क रही है। कोई भी समाज चाहे वह हकीकत की ज़मीन पर हो या किसी आभासी दुनिया में, इतनी नफरत के साथ लंबे समय तक टिक नहीं सकता है।

पहले सोशल मीडिया पर लोग अपनी बात रखते थे और दूसरों की बात को सुनते और समझने की कोशिश करते थे। इस बातचीत का दायरा असीमित था, लेकिन बीते कुछ सालों में सोशल मीडिया में बातचीत का दायरा सीमित तो हुआ ही है साथ ही अब वैचारिक मतभेद, वैचारिक नफरत में बदलते जा रहे हैं। अब बात होती है तो आरक्षण पर या फिर साम्प्रदायिकता पर या फिर ऐसे है किसी अन्य मुद्दे पर। इन विषयों पर भी कोई सकारात्मक विमर्श होने के बजाय, एक दूसरे के प्रति नफरत उगलने का काम ज़्यादा होता है।

मै खुद फेसबुक पर काफी समय से एक्टिव हूं और उन लोगों के साथ जुड़ा हुआ हूं जो इस माध्यम का अपनी बात कहने के लिए अच्छा-खासा उपयोग करते हैं। मैंने कई बार खुद इस नफरत को झेला है, आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दों पर बिना कोई विश्लेषण किये लोग गालियों की बौछार लगा देते हैं। मतलब साफ होता है, या तो आप आरक्षण के साथ हैं या फिर खिलाफ। तीसरे किसी विश्लेषण के लिए कोई जगह नहीं होती। नफरत दोनों तरफ से झेलनी पड़ती है।

सोशल मीडिया पर हर चीज़ पर ध्रुवीकरण होता जा रहा है, यहां अब तीसरे, चौथे या किसी और तरीके से सोचने पर आपको सिर्फ नफरत ही मिलती है।

मैं बिहार से हूं और वहां मैंने जातीय हिंसा के अमानवीय चेहरे को देखा है, मैंने उसी हिंसा को फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर भी होते देखा है। ज़मीन पर हो रही जातीय हिंसा से लोग मरे हैं, अपाहिज हुए हैं लेकिन सोशल मीडिया पर होने वाली इस हिंसा ने लोगों के मानसिक पटल पर प्रहार किया है। आप शारीरिक रूप से तो सुरक्षित रहते हैं, लेकिन मानसिक तौर पर आपको क्षत-विक्षत कर दिया जाता है।

एक बार मैंने एक पोस्ट यादव जाति के ऊपर लिखा और लोग मुझे यादव जी कहने लगे, मेरा मज़ाक उड़ाने लगे, गालियां देने लगे, लालू का बच्चा कहने लगे। मजबूरन मुझे बताना पड़ा कि मैं यादव जाति से नहीं हूं। ये सिलसिला यहीं नहीं रुका बल्कि लोग मेरी जाति खोजने और जानने में ज़्यादा इंट्रेस्ट दिखाने लगे। कुछ इसी तरह एक दिन मैंने भारतीय परम्परा में आधुनिकता पर लिखा और मुझे लोग संघी कहने लगे और गाली-गलौच की बारिश शुरू हो गई। जब कार्ल मार्क्स पर लिखा तो मुझे कोमिज़, लेफ्टिस्ट बना दिया गया और फिर देशद्रोही से लेकर क्या-क्या नहीं कह दिया गया। ऐसे ही एक पोस्ट पर बहस करते-करते एक महाशय ने काफी पर्सनल और आपत्तिजनक टिप्पणी तक कर दी थी जिसके बाद मेरे एक मित्र ने मुझे फोन करके मिलने को कहा और चाय पर ले जाकर मुझे सांत्वना दी।

मैंने कई बार अहिंसा के ऊपर बहस को हिंसात्मक होते देखा है। एक बार तो एक महाशय ने दलित विरोधी तो एक अन्य ने मुझे गद्दार ही कह दिया था। सोशल मीडिया की निरंकुशता जो कभी इसकी खूबी हुआ करती थी अब इसकी खामी के तौर पर झलकने लगी है। बहुत गंभीर बात यह है कि सोशल मीडिया पर बढ़ती ये नफरत अब ज़मीन पर भी दिखने लगी है। मुझे याद है कि हॉस्टल में कई मुद्दों पर बहस के दौरान गर्मागर्मी हो जाने के बाद हम सब मिलकर चाय पीने चले जाते थे और फिर सारा दुर्भाव चाय की चुस्की के साथ हवा हो जाता था। लेकिन सोशल मीडिया पर बहस के बाद ऐसी सम्भावना नहीं होती और जिन्हें मैं जानता हूं, उनसे खुद कहा कि चाय पर मिलते हैं पर वो नहीं आए क्यूंकि नफरत शायद उन्हें आने नहीं दे रही है।

वैसे इस नफरत की वजह राजनीतिक से कहीं ज़्यादा सामाजिक एवं आर्थिक असमानता है। इतनी असमानता जिस भी समाज में होगी वहां एक दूसरे से बात करने की जगह लोग एक दूसरे से नफरत ही करेंगे। इसे विद्रोह तो नहीं कहेंगे, हां बदला ज़रूर कह सकते हैं। बढ़ती खाई और असमानता इस विद्वेष को और हवा दे रही है। यह भी कहां सही होगा कि लोग अपने असली मुद्दों को लेकर सरकार को ज़िम्मेदार मानने से ज़्यादा उन लोगों को ज़िम्मेदार मानते हैं जो कि असमानता का शिकार नहीं हैं। इसे लोग अपने हक की लड़ाई के तौर भी देखते हैं।

सोशल मीडिया से फैल रही नफरत का इलाज सिर्फ किसी जर्मनी जैसे कानून में नहीं बल्कि इस देश में बढ़ती असमानता को कम करने में है। लोगों को रोज़गार के अवसर पर्याप्त होने से इस तरह की नफरत को कम तो किया ही जा सकता है।

सरकारें अगर लोगों को काम मुहैया नहीं करा सकती, असमानता को कम नहीं कर सकती तो फिर यह नफरत की आग सरकार को भी निगल लेगी। मेरे गांव में कहावत है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है, किसी ठोस कानून से शायद यह यहां रूक भी जाए लेकिन यह गुस्सा और नफरत कहीं तो फूटेगा ही। असल में हमें इस नफरत के कारण को ढूंढना चाहिए, समाधान नहीं। बुद्ध ने कहा था कि समस्या के कारण को निकालो, समाधान को नहीं। अंतत:, असमानता और बेरोज़गारी जैसे दानव की वजह से भी यह नफरत पैदा हो रही है बाकि राजनीति तो इसी नफरत पर फल-फूल रही है।

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