सुप्रीम कोर्ट के चार एक्टिंग जजों के सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था पर सवाल खड़े करने और वहां की गड़बड़ियों को लेकर लोकतंत्र को खतरे में बताने को लेकर भले मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक बहसों का बाज़ार गर्म है और सभी अपने हिसाब से टिप्पणी कर रहे हैं। मगर इस मसले पर न्यायपालिका से जुड़े लोग टिप्पणी करने से अमूमन परहेज कर रहे हैं। मैंने इस घटना के बाद छह अवकाश प्राप्त जजों से इस मुद्दे पर टिप्पणी लेने की कोशिश की। इनमें से पांच जज कोई न कोई बहाना बना कर टाल गये। सिर्फ एक जज ने खुल कर इस मसले पर टिप्पणी की।
दो न्यायाधीश महोदय ने तो साफ कह दिया कि ये बड़े लोगों की बातें हैं, इसमें हम लोग क्या टिप्पणी कर सकते हैं। यहां समझने की बात यह है कि ये दोनों जज हाईकोर्ट से रिटायर हुए हैं, उनके लिए सुप्रीम कोर्ट का मसला बड़े लोगों की बातें हैं और रिटायर होने के बाद भी वे बड़े लोगों की बातों पर टिप्पणी करने से परहेज़ करते हैं।
दो न्यायाधीश महोदय को फोन लगाया तो इसे संयोग कहें या कुसंयोग कि दोनों जगह उनकी पत्नियों ने फोन उठाया और कहा कि जज साहब अपना फोन घर में भूल कर चले गये हैं। एक जज साहब ने फोन ही काट दिया, जबकि उन्हें पहले मैसेज किया जा चुका था। इनमें से एक जज महोदय तो दक्षिण भारत के हैं।
ऐसे अनुभव कहीं न कहीं न्यायपालिका के आंतरिक लोकतंत्र की स्थिति की तरफ भी इशारा करते हैं। अवमानना का मामला हो या हायरारकी का डर मगर सच यही है कि न्यायपालिका भले लोकतंत्र का एक मजबूत खंबा हो, मगर इसके आंतरिक संरचना में कितना लोकतंत्र है यह मसला सवालों के घेरे में है।
पटना हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज राजेंद्र प्रसाद की टिप्पणी-
जो अदालत 40-40 साल में न्याय उपलब्ध कराये, क्या उसे ज़िंदा कहा जा सकता है, वह तो पहले से ही कोलैप्स कर चुकी है।
लोकतंत्र खतरे में है, यह बात सिर्फ सुप्रीम कोर्ट से नहीं आ रही है, नेशनल लेवल पर जो अपोजीशन है उसका भी यही कहना है। जो अपोजीशन में होता है, जो सत्ता का लाभ नहीं ले पाता, ऐसे लोगों को हमेशा लगता है कि लोकतंत्र खतरे में है। मगर क्या पहले लोकतंत्र ज़िंदा था, न्यायपालिका ज़िंदा थी? मेरा तो मानना है कि हमने बहुत पहले इस देश में लोकतंत्र की सभी संस्थाओं को खत्म कर दिया है।
जिस देश में एक जजमेंट को डिलीवर कराने में 40 साल लग जाये, दीवानी मुकदमे को डिलीवर कराने में पुश्त दर पुश्त का वक्त लगे, तो ऐसे में न्यायपालिका की क्या ज़रूरत है? हम कैसे कह सकते हैं कि न्यायपालिका ज़िंदा है?
असली सवाल यह है कि लोकतंत्र को किसने खतरे में पहुंचाया? और अगर ठीक से देखा जाये तो हमसब मिलकर लोकतंत्र को खतरे में नहीं बल्कि समाप्त ही कर चुके हैं। भले ही न्यायपालिका दूसरे पर आक्षेप करे, मगर हम सभी ज़िम्मेदार है। लोकतंत्र विवेकशील लोगों का ही हो सकता है। आज इस देश को समाजतंत्र की आवश्यकता है, लोकतंत्र के सारे संस्थान बहुत पहले कोलैप्स कर चुके हैं।
असली मुद्दा जजों की नियुक्ति और बेंच के गठन का है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को इस मामले में विशेषाधिकार रहता है। मेरे ख्याल से इन जजों ने इसी विशेषाधिकार में गड़बड़ी पर सवाल उठाया है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों के बीच ऐसी बातें हो रही है। ऐसी बातें कोई व्यक्ति तो कर सकता है, जज नहीं। क्योंकि जज वह होता है जो प्रिज्युडिसेस से दूर रहता है। पहले समाज अपना जज चुनता था, पंच चुनता था, आज जज अप्वाइंटेड व्यक्ति है, इसलिए वह जज नहीं हो पा रहा है। आज जब ऐसी बात हो गयी है, पूरे देश को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
(जज राजेंद्र प्रसाद की टिप्पणी आज प्रभात खबर में छपी है।)
पुष्य मित्र बिहार के पत्रकार हैं और बिहार कवरेज नाम से वेबसाइट चलाते हैं। कुछ ऐसी ही बेहद इंट्रेस्टिंग ज़मीनी खबरों के लिए उनके वेबसाइट रुख किया जा सकता है।